प्रथम पुरुष के अवतार (कारणार्णवशायी विष्णु) के बाद महत्-तत्त्व अथवा भौतिक सृष्टि के तत्त्व अर्थात् भौतिक सृष्टि के सिद्धान्त घटित होते हैं, तब काल प्रकट होता है और काल- क्रम से तीनों गुण प्रकट होते हैं। प्रकृति का अर्थ है तीन गुणात्मक अभिव्यक्तियाँ, जो कार्यों में रूपान्तरित होती हैं।
तात्पर्य
परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से सारी भौतिक सृष्टि का विकास रूपान्तरण तथा प्रतिक्रियाओं की क्रमागत विधि से होता है और इसी सर्वशक्तिमत्ता से वे क्रमश: समेट लिए जाते हैं और परमेश्वर के शरीर में संरक्षित रहते हैं। काल प्रकृति का पर्यायवाची है और भौतिक सृष्टि के सिद्धान्तों का रूपान्तरित स्वरूप है। इस तरह काल को सृष्टि का प्रथम कारण माना जा सकता है और प्रकृति के रूपान्तरणों से ही भौतिक जगत के विभिन्न कार्यकलाप दृष्टिगोचर होते हैं। इन कार्यकलापों को ही प्रत्येक जीव या कि जड़ पदार्थों की सहज प्रवृत्ति माना जा सकता है और कार्यकलापों की अभिव्यक्ति के बाद तो उसी के अनुसार नाना प्रकार के फल और प्रतिफल उत्पन्न होते हैं। मूलत: ये सब परमेश्वर के कारण हैं। इसीलिए, वेदान्त-सूत्र तथा भागवत परम सत्य को समस्त सृष्टियों का मूल मानकर चलते हैं (जन्माद्यस्य यत:)।
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