श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  2.5.23 
महतस्तु विकुर्वाणाद्रज:सत्त्वोपबृंहितात् ।
तम:प्रधानस्त्वभवद् द्रव्यज्ञानक्रियात्मक: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
महत:—महत् तत्त्व का; तु—लेकिन; विकुर्वाणात्—रूपान्तरित होकर; रज:—रजोगुण; सत्त्व—सतोगुण; उपबृंहितात्—बढ़ जाने से; तम:—तमोगुण; प्रधान:—प्रमुख होने से; तु—लेकिन; अभवत्—घटित हुआ; द्रव्य—पदार्थ; ज्ञान—भौतिक ज्ञान; क्रिया-आत्मक:—प्रधानत: भौतिक कार्यकलाप ।.
 
अनुवाद
 
 महत् तत्त्व के विक्षुब्ध होने पर भौतिक क्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। सर्वप्रथम सतो तथा रजोगुणों का रूपान्तरण होता है और बाद में तमोगुण के कारण पदार्थ, ज्ञान तथा ज्ञान के विभिन्न कार्यकलाप प्रकट होते हैं।
 
तात्पर्य
 सभी तरह की भौतिक सृष्टियाँ, न्यूनाधिक रूप में, रजोगुण के विकास से होती हैं। महत् तत्त्व भौतिक सृष्टि का तत्त्व (मूल कारण) है और जब भगवान् की इच्छा से यह विक्षुब्ध होता है, तो सर्वप्रथम रजो तथा सतोगुण प्रकट होते हैं। बाद में विभिन्नप्रकार के भौतिक कार्य-कलापों के द्वारा उत्पन्न रजोगुण मुखर होता है और जीव अधिकाधिक तमोगुण में लिप्त होते जाते हैं। ब्रह्मा रजोगुण के प्रतिनिधि हैं, तो विष्णु सतोगुण के, किन्तु तमोगुण का प्रतिनिधित्व भौतिक कार्य-कलापों के जनक शिवजी द्वारा किया जाता है। भौतिक प्रकृति माता कहलाती है और भौतिक जीवन के प्रवर्तक हैं पिता रूप शिवजी। इसीलिए जीवों द्वारा की गई सारी सृष्टि रजोगुण से प्रसूत है। किसी युग विशेष में, जीवन की अवधि बढऩे के साथ क्रमिक विकास के कारण विभिन्न गुण कार्यशील होते हैं। कलियुग में (जिसमें तमोगुण प्रधान है) मानवी सभ्यता के विकास के नाम पर विभिन्न प्रकार के भौतिक कार्य- कलाप सम्पन्न होते हैं और जीव अपने असली स्वरूप—आध्यात्मिक स्वरूप—को अधिकाधिक भूलते जाते हैं। सतोगुण के नाममात्र अनुशीलन से आध्यात्मिक स्वभाव की झलक प्राप्त की जाती है, किन्तु रजोगुण की प्रधानता के कारण सतोगुण मिलावट हो जाती है। अतएव मनुष्य भौतिक गुणों की सीमाओं को लाँघ नहीं पाता, जिससे जीवों के लिए भौतिक गुणों से अतीत रहनेवाले भगवान् का साक्षात्कार कठिन हो जाता है, भले ही ये जीव अनुशीलन की विभिन्न विधियों द्वारा सतोगुण में ही स्थित क्यों न रहें। दूसरे शब्दों में, स्थूल पदार्थ अधिभूतम् हैं, उनका पालन अधिदैवम् है और भौतिक कार्यकलापों का शुभारम्भ करनेवाला अध्यात्मम् है। भौतिक जगत में ये तीनों नियम प्रमुख गुणों के रूप में कार्य करते हैं, अर्थात् कच्चा माल, इसकी नियमित पूर्ति तथा मोहग्रस्त जीवों द्वारा इन्द्रिय-भोग के लिए विविध रूपों में इनका उपयोग।
 
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