स:—वही; अहङ्कार:—अहंकार; इति—इस प्रकार; प्रोक्त:—कहा गया; विकुर्वन्—रूपान्तरित होकर; समभूत्—प्रकट हुआ; त्रिधा—तीन रूपों में; वैकारिक:—सतो गुणो में; तैजस:—रजोगुण में; च—तथा; तामस:—तमोगुण में; च—भी; इति—इस प्रकार; यत्—जो है; भिदा—विभक्त; द्रव्य-शक्ति:—पदार्थ को विकसित करनेवाली शक्ति; क्रिया-शक्ति:—सृजन करने की प्रेरणा; ज्ञान-शक्ति:—मार्गदर्शक बुद्धि; इति—इस तरह; प्रभो—हे स्वामी ।.
अनुवाद
इस प्रकार आत्म-केन्द्रित भौतिकतावादी अहंकार तीनों स्वरूपों में रूपान्तरित होकर सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण बन जाता है। ये तीन स्वरूप हैं : पदार्थ को विकसित करने वाली शक्तियाँ, भौतिक सृष्टियों का ज्ञान तथा ऐसी भौतिकतावादी क्रियाओं का मागदर्शन करनेवाली बुद्धि। हे नारद, तुम इसे समझने के लिए पूर्ण सक्षम हो।
तात्पर्य
भौतिकतावादी अहंकार या पदार्थ के साथ पहचान का भाव निपट आत्मकेन्द्रित एवं ईश्वर के अस्तित्व के स्पष्ट ज्ञान से रहित होता है और भौतिकतावादी जीवों का यही आत्म-केन्द्रित अहंकार अन्य वस्तुओं द्वारा उनके बद्ध होने तथा संसार के बन्धन में पड़े रहने का कारण होता है। यह आत्म-केन्द्रित अहंकार भगवद्गीता के सप्तम अध्याय में (श्लोक २४ से २७ तक) भलीभाँति समझाया गया है। आत्म-केन्द्रित निर्विशेषवादी भगवान् की स्पष्ट अवधारणा के बिना ही अपने ढंग से यह निष्कर्ष निकालता है कि भगवान् किसी उद्देश्य विशेष से अपने मूल निर्विशेष आध्यात्मिक अस्तित्व से भौतिक स्वरूप ग्रहण करते हैं। और उसकी भगवान्-सम्बन्धी यह भ्रामक धारणा उसी तरह बनी रहती है, भले ही वह ब्रह्मसूत्र तथा अन्य बौद्धिक ज्ञान जैसे वैदिक साहित्य में रुचि रखता प्रतीत हो। भगवान् के साकार स्वरूप के प्रति यह अज्ञानता विभिन्न गुणों के मिश्रण को न जानने के कारण है। इस प्रकार निर्विशेषवादी भगवान् के सच्चिदानन्द स्वरूप के विषय में धारणा नहीं बना पाते। इसका कारण यह है कि भगवान् यह अधिकार अपने पास सुरक्षित रखते हैं कि वे ऐसे अभक्त के समक्ष प्रकट न हों जो भगवद्गीता जैसे ग्रंथ का अध्ययन करने के बाद भी हठ-वश (मूढ़ता से) निर्विशेषवादी बने रहते हैं। यह हठ भगवान् की निजी शक्ति योगमाया के प्रभाव के कारण होता है और हठी निर्विशेषवादी की दृष्टि को आच्छादित करने में सहायक का कार्य करता है। ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति को मूढ़ अर्थात् निपट अज्ञानी कहा जाता है, क्योंकि वह भगवान् के दिव्य रूप को अजन्मा तथा अक्षर समझने में असमर्थ रहता है। यदि भगवान् अपने मूल निर्विशेष स्वरूप से भिन्न कोई स्वरूप या भौतिक आकार ग्रहण करते हैं, तो इसका अर्थ होता है कि वे जन्म लेते हैं और निर्विशेष से साकार रूप में परिवर्तित होते हैं। लेकिन वे परिवर्तनशील नहीं हैं। न ही वे बद्धजीव की भाँति कभी नया जन्म धारण करते हैं। बद्धजीव अपनी भौतिक स्थिति के कारण एक जन्म के बाद दूसरा जन्म ले सकता है, लेकिन आत्म-केन्द्रित निर्विशेषवादी अपनी निरी अज्ञानता वश अहंकार के कारण भगवान् को अपने जैसा मानकर चलते हैं, यद्यपि वेदान्त के ज्ञान में वे तथाकथित रूप से बहुत आगे बढ़े होते हैं। प्रत्येक जीव के हृदय में निवास करने के कारण भगवान् ऐसे जीवों की भूत, वर्तमान तथा भविष्य की प्रवृत्तियों से भलीभाँति अवगत रहते हैं, लेकिन मोहग्रस्त बद्धजीव शायद ही उन्हें उनके शाश्वत रूप में जान सके। अतएव निर्विशेषवादी भगवान् के ब्रह्म तथा परमात्मा स्वरूपों को जान लेने के बाद भी उनके नित्य साकार स्वरूप नारायण से, जो समस्त भौतिक सृष्टि से परे है, अनजान रहते हैं।
ऐसी निपट अज्ञानता (मूढ़ता) का कारण भौतिकतावादी व्यक्ति के द्वारा कृत्रिम रूप से बढ़ती हुई भौतिक माँगों में जगे रहना है। भगवान् की अनुभूति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को भक्ति द्वारा भौतिकतावादी इन्द्रियों को शुद्ध करना होता है। सतोगुण या वैदिक साहित्य में वर्णित ब्राह्मण संस्कृति ऐसी आध्यात्मिक अनुभूति कराने में सहायक है। इस तरह बद्धजीव की ज्ञानशक्ति अवस्था अन्य दो अवस्थाओं—द्रव्यशक्ति तथा क्रियाशक्ति—से अच्छी है। समस्त भौतिक संस्कृति पदार्थों के विपुल संग्रह द्वारा या दूसरे शब्दों में, औद्योगिक कार्यों के लिए कच्चे-माल के संग्रह द्वारा व्यक्त होती है और सारे औद्योगिक कार्यकलाप (क्रियाशक्ति) आध्यात्मिक जीवन के प्रति निपट अज्ञान के कारण हैं। द्रव्यशक्ति तथा क्रियाशक्ति के सिद्धान्तों पर आधारित भौतिकतावादी सभ्यता की इस महान् विडम्बना को ठीक करने के लिए भगवद्गीता (९.२७) में व्यक्त कर्मयोग के सिद्धान्तों के अनुसार भक्तियोग को ग्रहण करना होगा। यथा—
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
“हे कुन्तीपुत्र! तुम जो भी करो, जो भी खाओ, जो भी अर्पित करो और दान दो तथा जो भी तपस्याएँ करो, वे सब मुझे भेंट के रूप में की जाँय।”
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