चूँकि आकाश रूपान्तरित होता है, अतएव स्पर्शगुण से युक्त वायु उत्पन्न होती है और पूर्व परम्परा के अनुसार वायु शब्द तथा आयु के मूलभूत तत्त्वों अर्थात् स्पर्श, मानसिक-शक्ति तथा शारीरिक बल से भी पूर्ण होती है। काल तथा प्रकृति के साथ ही जब वायु रूपान्तरित होती है, तो अग्नि उत्पन्न होती है और यह स्पर्श तथा ध्वनि का रूप धारण करती है। चूँकि अग्नि भी रूपान्तरित होती है, अतएव जल प्रकट होता है, जो रस तथा स्वाद से पूरित होता है। परम्परानुसार यह भी रूप, स्पर्श तथा शब्द से परिपूर्ण होता है। और जब यही जल अपनी नानारूपता समेत पृथ्वी में रूपान्तरित होता है, तब वह सुगन्धिमय प्रतीत होता है और परम्परानुसार यह रस, स्पर्श, शब्द तथा रूप के गुणों से पूरित हो उठता है।
तात्पर्य
सम्पूर्ण सृष्टि का प्रक्रम क्रमिक विकास कार्य है तथा एक तत्त्व से दूसरे तत्त्व का विकास है, जिससे पृथ्वी में नानारूपता प्राप्त होती है, जिसमें इतने सारे वृक्ष, पौधे, पर्वत, नदियाँ, सरीसृप, पक्षी, पशु तथा तरह-तरह के मनुष्य मिलते हैं। इन्द्रिय-अनुभूति का गुण भी विकासमान है अर्थात् यह शब्द से उत्पन्न होता है फिर स्पर्श और स्पर्श से रूप बनता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के क्रमिक विकास के साथ-साथ स्वाद तथा गन्ध भी उत्पन्न होते हैं। वे एक दूसरे के पारस्परिक कारण तथा कार्य होते हैं, किन्तु मूल कारण तो अंशरूप में साक्षात् भगवान् होते हैं, जो महत् तत्त्व के कारण-जलशायी महाविष्णु हैं। इसीलिए ब्रह्म-संहिता में भगवान् कृष्ण को समस्त कारणों का कारण बताया गया है और भगवद्गीता (१०.८) में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है : अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥
इन्द्रिय अनुभूति के सारे गुण पृथ्वी में पूरी तरह से आते हैं और वे ही, कुछ कम हद तक, अन्य तत्त्वों में प्रकट होते हैं। आकाश में केवल शब्द होता है, किन्तु वायु में शब्द तथा स्पर्श दोनों होते हैं। अग्नि में ध्वनि, स्पर्श तथा आकार होते हैं तथा जल में अन्य अनुभूतियों यथा ध्वनि, स्पर्श तथा आकार के अतिरिक्त स्वाद भी होता है। किन्तु पृथ्वी में उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त गन्ध का भी अतिरिक्त विकास होता है। अतएव पृथ्वी पर जीवन की विविधता का पूर्ण प्रदर्शन होता है, उस जीवन का जो मूलत: वायु को मूल तत्त्व मानकर प्रारम्भ होता है। शारीरिक रोग जीवों के भौतिक शरीर के भीतर वायु में विकार आ जाने से होते हैं, मानसिक रोग शरीर के भीतर वायु के विशेष कुपित होने से होता है अतएव योगिक व्यायाम वायु को ठीक से रखने में विशेष लाभप्रद होते हैं और ऐसे व्यायामों से शरीर के रोग प्राय: न के बराबर हो जाते हैं। योगासनों को ठीक से करने पर आयु भी बढ़ती है और ऐसे अभ्यासों से मृत्यु को भी वश में किया जा सकता है। एक पूर्णयोगी मृत्यु पर भी वर्चस्व रख सकता है और ठीक समय पर शरीर को त्याग सकता है किन्तु तभी जब वह अपने को उपयुक्त लोक तक ले जाने में सक्षम होता है। किन्तु भक्तियोगी समस्त योगियों से बढक़र होता है क्योंकि वह अपनी भक्ति- मय सेवा से भौतिक आकाश से परे वाले लोक को भेज दिया जाता है और सबों के नियन्ता भगवान् की परम इच्छा से उसे वैकुण्ठ के किसी भी लोक में रखा जाता है।
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