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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  2.5.30 
वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश ।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रका: ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
वैकारिकात्—सतोगुण से; मन:—मन; जज्ञे—उत्पन्न किया; देवा:—देवता; वैकारिका:—सतोगुण में; दश—दस; दिक्— दिशाओं का अधिष्ठाता; वात—वायु का अधिष्ठाता; अर्क—सूर्य; प्रचेत:—वरुण; अश्वि—अश्विनीकुमार; वह्नि—अग्निदेव; इन्द्र—स्वर्ग का राजा; उपेन्द्र—स्वर्ग का देव (श्री विग्रह); मित्र—बारह आदित्यों में से एक; का:—प्रजापति ब्रह्मा ।.
 
अनुवाद
 
 सतोगुण से मन उत्पन्न होकर व्यक्त होता है, साथ ही शारीरिक गतियों के नियन्त्रक दस देवता भी प्रकट होते हैं। ऐसे देवता दिशाओं के नियन्त्रक, वायु के नियन्त्रक, सूर्यदेव, दक्ष प्रजापति के पिता, अश्विनीकुमार, अग्निदेव, स्वर्ग का राजा (इन्द्र), स्वर्ग के पूजनीय अर्चाविग्रह, आदित्यों के प्रमुख तथा प्रजापति ब्रह्माजी कहलाते हैं। सभी इस तरह अस्तित्व में आते हैं।
 
तात्पर्य
 वैकारिक सृष्टि की उदासीन अवस्था है और तेजस सृष्टि का शुभारम्भ है, जबकि तमस अज्ञान के अन्तर्गत इस भौतिक सृष्टि का पूर्ण प्रदर्शन है। फैक्टरियों तथा कार्यशालाओं में ‘जीवन की आवश्यकताओं’ का निर्माण ही कलियुग में सर्वाधिक प्रमुख है और यही निर्माण अज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है। मानव समाज द्वारा ऐसे निर्माणकारी उद्योग तमोगुण में सम्पन्न होते हैं, क्योंकि वास्तव में निर्मित सामग्रियों की कोई आवश्यकता नहीं होती। मानव समाज को मूलत: अपने भरण-पोषण के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, सोने के लिए आश्रय, रक्षा के लिए संरक्षण तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तओं की चाहत होती है। इन्द्रियाँ जीवन के व्यावहारिक चिह्न हैं, जैसाकि अगले श्लोक में बताया जायेगा। मानवीय सभ्यता इन्द्रियों की शुद्धि के लिए है और इन्द्रियतृप्ति के विषयों की पूर्ति केवल आवश्यकता के अनुसार होनी चाहिए, न कि कृत्रिम ऐन्द्रिय आवश्यकताओं को भडक़ाने के लिए। भोजन, आश्रय, सुरक्षा तथा इन्द्रियतृप्ति—ये भौतिक जीवन की आवश्यकताएँ हैं। अन्यथा अपने शुद्ध मूल जीवन की संदुषण रहित अवस्था में जीव को इनकी आवश्यकताएँ नहीं होतीं। अतएव आवश्यकताएँ कृत्रिम होती हैं और जीवन की विशुद्ध अवस्था में ऐसी आवश्यकताएँ नहीं उठतीं। इस तरह कृत्रिम आवश्यकताएँ बढ़ाना जैसाकि भौतिक सभ्यता का मानक बन गया है या मानव-समाज का आर्थिक विकास करना एक प्रकार से ज्ञान के बिना अन्धकार में हाथ चलाना है। ऐसी व्यस्तता से मनुष्य की शक्ति नष्ट होती है, क्योंकि मानवीय शक्ति इन्द्रियों को शुद्ध करने के लिए है, जिससे उन्हें भगवान् की इन्द्रियों को तुष्ट करने में लगाया जा सके। परमेश्वर समस्त इन्द्रियों के स्वामी हृषीकेश हैं, क्योंकि वे आध्यात्मिक इन्द्रियों के अधिकारी हैं। हृषीक का अर्थ है इन्द्रियाँ तथा ईश का अर्थ है स्वामी। भगवान् इन्द्रियों के दास नहीं हैं दूसरे शब्दों में, वे इन्द्रियों के निर्देश पर नहीं चलते। हाँ, बद्धजीव या जीव विशेष इन्द्रियों के दास होते हैं। वे इन्द्रियों के इशारों पर चलते हैं, इसीलिए यह भौतिक सभ्यता एक प्रकार से इन्द्रियतृप्ति की व्यस्तता मात्र है। मानव सभ्यता का मापदण्ड इन्द्रियतृप्ति रूपी रोग का उपचार होना चाहिए और यदि कोई भगवान् की आध्यात्मिक इन्द्रियों के तुष्ट करने का निमित्त मात्र बन जाये तो ऐसा कर सकता है। इन्द्रियों को कभी उनके व्यापारों से रोकना नहीं चाहिए अपितु उन्हें इन्द्रियों के स्वामी (हृषीकेश) की इन्द्रियतृप्ति की शुद्ध सेवा में लगाकर उन्हें पवित्र बनाना चाहिए। सम्पूर्णभगवद्गीता का यही उपदेश है। अर्जुन अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ युद्ध न करने का निर्णय करके अपनी इन्द्रियों की तुष्टि करना चाह रहा था, लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे भगवद्गीता की शिक्षा दी जिससे वह इन्द्रियतृप्ति सम्बन्धी अपने निर्णय को पवित्र कर सके। अतएव अर्जुन ने भगवान् की इन्द्रियों को तुष्ट करना स्वीकार किया और भगवान् की इच्छानुसार उसने कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग लिया।

वेद हमें अंधकार की स्थिति से निकलकर प्रकाश के मार्ग पर अग्रसर होने का आदेश देते हैं (तमसि मा ज्योतिर्गम), अतएव प्रकाश का मार्ग भगवान् की इन्द्रियों की तुष्टि के लिए है। किन्तु जो दिग्भ्रमित हैं या अल्पज्ञ हैं, वे अर्जुन तथा अन्य भगवद्भक्तों द्वारा दिखाये गये मार्ग का पालन करते हुए भगवान् की दिव्य इन्द्रियों को तुष्ट करने का कोई प्रयास किये बिना ही आत्म-साक्षात्कार के पथ का अनुसरण करते हैं। इसके विपरीत वे इन्द्रियों की क्रियाओं को रोकने का कृत्रिम प्रयास करते हैं (योग पद्धति) या भगवान् की दिव्य इन्द्रियों की अवहेलना करते हैं (ज्ञानयोग)। लेकिन भक्तगण योगियों तथा ज्ञानियों के ऊपर होते हैं, क्योंकि वे भगवान् की इन्द्रियों से इनकार नहीं करते; वे तो भगवान् की इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहते हैं। ज्ञानी तथा योगी मात्र अपने अज्ञान रूपी अन्धकार के कारण भगवान् की इन्द्रियों को नकारते हैं और कृत्रिम रीति से अपनी रुग्ण इन्द्रियों के कार्यकलापों पर नियन्त्रण प्राप्त करना चाहते हैं। इन्द्रियों के रुग्ण होने पर उनमें भौतिक आवश्यकताओं के प्रति व्यस्तता बढ़ जाती है। जब कोई व्यक्ति इन्द्रियों के कार्यकलापों को बढ़ाने की हानियों को देखता है, तो वह ज्ञानी कहलाता है और जब कोई व्यक्ति योग के नियमों के अभ्यास द्वारा उन्हीं इन्द्रियों के कार्यकलापों को रोकना चाहता है, तो वह योगी कहलाता है, किन्तु जब वही व्यक्ति भगवान् की दिव्य इन्द्रियों से पूर्ण रूप से अवगत हो जाता है और उन इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहता है, तो वह भगवद्भक्त कहलाता है। भगवद्भक्त कभी भी भगवान् की इन्द्रियों को नकारते नहीं, न ही वे कृत्रिम रूप से इन्द्रियों के कार्यों को रोकते हैं। किन्तु वे स्वेच्छा से अपनी पवित्र इन्द्रियों को इन्द्रियों के स्वामी की सेवा में लगाते हैं जैसाकि अर्जुन ने किया था और इस तरह वे भगवान् को तृप्त करने की पूर्णता प्राप्त करते हैं, जो सारी सिद्धि का चरम लक्ष्य है।

 
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