श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  2.5.31 
तैजसात् तु विकुर्वाणादिन्द्रियाणि दशाभवन् ।
ज्ञानशक्ति: क्रियाशक्तिर्बुद्धि: प्राणश्च तैजसौ ।
श्रोत्रं त्वग्घ्राणद‍ृग्जिह्वा वागदोर्मेढ्राङ्‌घ्रिपायव: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
तैजसात्—रजोगुणी अहंकार से; तु—लेकिन; विकुर्वाणात्—रूपान्तरण से; इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; दश—दस; अभवन्—उत्पन्न की गई; ज्ञान-शक्ति:—ज्ञान प्राप्त करने की पाँच इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ; क्रिया-शक्ति:—कार्य की पाँच इन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ; बुद्धि:—बुद्धि; प्राण:—जीवनशक्ति; च—भी; तैजसौ—रजोगुण के सारे पदार्थ; श्रोत्रम्—सुनने की इन्द्रिय; त्वक्— स्पर्शेन्द्रिय; घ्राण—सूँघने की इन्द्रिय; दृक्—देखने की इन्द्रिय; जिह्वा:—स्वाद लेने की इन्द्रिय; वाक्—बोलने की इन्द्रिय; दो:—ग्रहण करने की इन्द्रिय; मेढ्र—जननेन्द्रिय; अङ्घ्रि—पाँव; पायव:—मल-विसर्जन इन्द्रिय ।.
 
अनुवाद
 
 रजोगुण में और अधिक विकार आने से बुद्धि तथा प्राण के साथ ही श्रवण, त्वचा, नाक, आँख, जीभ, मुँह, हाथ, जननेन्द्रिय, पाँव तथा मल विसर्जन की इन्द्रियाँ सभी उत्पन्न होती हैं।
 
तात्पर्य
 भौतिक जगत में जीवन न्यूनाधिक रूप में बुद्धि तथा प्राणशक्ति पर निर्भर करता है। कठिन जीवन-संघर्ष का सामना करने के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ बुद्धि की सहायता करती हैं और प्राणशक्ति की धारणा हाथ तथा पाँव जैसी सक्रिय इन्द्रियों के संचालन से होती है। अतएव कुल मिलाकर यह जीवन-संघर्ष रजोगुण का कार्यान्वयन होता है। अतएव बुद्धि तथा प्राण समेत सारी इन्द्रियाँ प्रकृति के द्वितीय गुण, रजोगुण, के विविध उत्पाद तथा उपोत्पाद हैं। किन्तु यह रजोगुण वायु तत्त्व से उत्पन्न है जैसाकि पहले कहा जा चुका है।
 
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