हे योगियों में श्रेष्ठ नारद, जब तक ये सृजित अंग यथा तत्त्व, इन्द्रियाँ, मन तथा प्रकृति के गुण जुड़ नही जाते, तब तक शरीर स्वरूप धारण नहीं कर सकता।
तात्पर्य
जीवों की विविध प्रकार की शरीर-संरचनाएँ उन विभिन्न प्रकार की मोटर-कारों जैसी हैं, जिन्हें विभिन्न पूर्जों को जोड़ करके निर्मित किया जाता है। जब मोटरकार तैयार हो जाती है, तो चालक उसमें बैठकर अपनी इच्छानुसार उसे चलाता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (१८.६१) में भी हुई है—जीव मानो शरीर रूपी यंत्र पर आरूढ़ है और शरीर रूपी मोटरकार प्रकृति के वश में रहकर चलती-फिरती है, ठीक उसी तरह जिस तरह रेलगाडिय़ाँ नियन्त्रक के मार्ग-निर्देशन में रहकर चलती हैं। लेकिन ये जीव शरीर नहीं हैं, वे तो शरीर रूपी यान से पृथक् होते हैं। लेकिन अल्पज्ञ भौतिक विज्ञानी शरीर के अंगों के जोड़े जाने की विधि को नहीं जान पाता जो इन्द्रिय, मन तथा गुण के रूप में होते हैं। प्रत्येक जीव आध्यात्मिक स्फुलिंग है, परम पुरुष का अंश है और जिस तरह पिता पुत्र के प्रति दयालु होता है उसी तरह भगवत्कृपा से प्रत्येक जीव को स्वल्प स्वतन्त्रता दी गई है कि वह प्रकृति के गुणों पर प्रभुता जता कर स्वेच्छा से कर्म करे। जिस प्रकार पिता रोते हुए बालक को चुप करने के लिए खिलौने थमा देता है उसी तरह, भगवान् की इच्छा से, मोहग्रस्त जीवों को भगवान् के प्रतिनिधि के नियंत्रण में अपनी-अपनी इच्छित वस्तुओं पर प्रभुता जताने की छूट देने के लिए सारी भौतिक सृष्टि बनी हुई है। सारे जीव उन छोटे छोटे बालकों की भाँति भौतिक क्रीड़ा-क्षेत्र में खेल रहे हैं जिनकी निगरानी भगवान् की दासी (प्रकृति) कर रही है। वे इस दासी या माया को सर्वेसर्वा मानकर परम सत्य को स्त्री (दुर्गादेवी आदि) मान बैठते हैं। मूर्ख बाल-तुल्य भौतिकतावादी दासी प्रकृति की अवधारणा से ऊपर नहीं उठ पाते, किन्तु भगवान् के बुद्धिमान सयाने पुत्र भलीभाँति जानते हैं कि प्रकृति के सारे कार्य भगवान् द्वारा उसी प्रकार नियन्त्रित होते हैं जिस तरह दासी अविकसित बालकों के पिता-रूप अपने मालिक के अधीन रहती है।
शरीर के अंग, यथा इन्द्रियाँ महत्तत्त्व द्वारा निर्मित हैं और जब भगवान् की इच्छा से ये अंग एक साथ जुड़ जाते हैं, तो भौतिक शरीर अस्तित्व में आता है और जीव को इसे अपने आगे के कार्यों के लिए उपयोग में लाने दिया जाता है। इसकी व्याख्या आगे दी गई है।
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