जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शक्ति के बल से ये सब एकत्र हो गये तो सृष्टि से मूल तथा गौण कारणों को स्वीकार करते हुए यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया।
तात्पर्य
इस श्लोक में स्पष्ट उल्लेख हुआ है कि सृष्टि के लिए भगवान् अपनी विभिन्न शक्तियाँ प्रयुक्त करते हैं। ऐसा नहीं है कि वे स्वयं भौतिक जगत में रूपान्तरित हो जाते हैं। वे अपनी विभिन्न शक्तियों द्वारा तथा अपने पूर्ण अंशों द्वारा अपना विस्तार करते हैं। कभी-कभी ब्रह्मज्योति के आध्यात्मिक आकाश के एक कोने में आध्यात्मिक बादल प्रकट होता है और इस तरह आच्छादित भाग महत् तत्त्व कहलाता है। तब भगवान् अपने महाविष्णु अंश द्वारा इस महत्तत्व के जल में शयन करते हैं और इस जल को कारणार्णव अर्थात् कारण-जल कहा जाता है। जब महाविष्णु इस कारण-जल में सोते रहते हैं, तो उनकी श्वास के साथ असंख्य ब्रह्माण्ड जन्म लेते रहते हैं। ये ब्रह्माण्ड तैरते रहते हैं और समस्त कारण-जल में चारों ओर बिखर जाते हैं। वे महाविष्णु की श्वास के समय तक ही टिके रहते हैं। यही महाविष्णु पुन: गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं और वहाँ यह नाग जैसे शेष-अवतार पर लेटे रहते हैं। उनकी नाभि से कमलनाल फूट निकलता है और इस कमल के ऊपर ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। तब वे इस ब्रह्माण्ड के भीतर सभी प्रकार के जीवों को अपनी इच्छानुसार विभिन्न प्रकार का आकार प्रदान करते हैं। वे सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य देवताओं को भी उत्पन्न करते हैं।
अतएव इस भौतिक सृष्टि के मुख्य शिल्पी स्वयं भगवान् हैं जैसाकि भगवद्गीता (९.१०) में पुष्टि हुई है। वे ही प्रकृति को सारे चर तथा अचर प्राणियों को उत्पन्न करने के लिए निर्देश करते हैं। भौतिक सृष्टि दो प्रकार की है—महाविष्णु द्वारा सामूहिक ब्रह्माण्डों की सृष्टि, जैसा ऊपर बताया गया है तथा एकाकी ब्रह्माण्ड की सृष्टि। इन दोनों का सृजन भगवान् द्वारा होता है और इस तरह ब्रह्माण्ड अपना स्वरूप धारण करता है जैसा हम देख सकते हैं।
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