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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  2.5.34 
वर्षपूगसहस्रान्ते तदण्डमुदकेशयम् ।
कालकर्मस्वभावस्थो जीवोऽजीवमजीवयत् ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
वर्ष-पूग—अनेक वर्ष; सहस्र-अन्ते—हजारों वर्षों का; तत्—वह; अण्डम्—ब्रह्माण्ड; उदके—कारण-जल में; शयम्— डूबकर; काल—नित्य समय; कर्म—कर्म; स्वभाव-स्थ:—प्रकृति के गुणों के अनुसार; जीव:—जीवों के स्वामी; अजीवम्— अचर; अजीवयत्—जीवित किया ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड हजारों युगों तक जल के भीतर (कारण-जल में) पड़े रहे। समस्त जीवों के स्वामी ने उन सबमें प्रवेश करके उन्हें पूरी तरह सजीव बनाया।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर भगवान् को जीव कहा गया है, क्योंकि वे अन्य सारे जीवों के नायक हैं। वेदों में उन्हें नित्य, समस्त नित्यों का नायक कहा गया है। जीवों के साथ भगवान् का सम्बन्ध वैसा ही है जैसा पिता का पुत्रों के साथ। गुणात्मक रूप में पुत्र तथा पिता समान होते हैं, किन्तु पिता न तो पुत्र होता है, न पुत्र कभी उत्पन्न करनेवाला पिता होता है। इस तरह, जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, गर्भोदकशायी विष्णु या हिरण्यगर्भ परमात्मा प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर जाते हैं और प्रकृति के गर्भ से जीवों को उत्पन्न करके उसे सजीव बनाते हैं जैसाकि भगवद्गीता (१४.३) में पुष्टि हुई है। भौतिक सृष्टि के प्रत्येक प्रलय के बाद, सारे जीव भगवान् के शरीर में लीन हो जाते हैं और सृष्टि की समाप्ति पर वे पुन: भौतिक शक्ति के रूप में गर्भस्थ होते हैं। अतएव भौतिक जगत में भौतिक शक्ति ही जीवों की माता और भगवान् उनके पिता प्रतीत होते हैं। तथापि जब जीवन प्रदान किया जाता है, तो सारे जीव काल तथा शक्ति के वशीभूत होकर अपना स्वाभाविक कार्य पुन: करने लगते हैं और इस तरह नाना प्रकार के जीव प्रकट होते हैं। अतएव भगवान् ही इस जगत को सजीव बनाने के कारणस्वरूप हैं।
 
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