स:—वह (भगवान्); एव—साक्षात्; पुरुष:—भगवान्; तस्मात्—ब्रह्माण्ड के भीतर से; अण्डम्—हिरण्यगर्भ; निर्भिद्य— विभाजित करके; निर्गत:—बाहर निकल आया; सहस्र—हजारों; ऊरु—जाँघें; अङ्घ्रि—पाँव; बाहु—भुजाएँ; अक्ष:—आँखें; सहस्र—हजारों; आनन—मुँह; शीर्षवान्—सिर सहित ।.
अनुवाद
यद्यपि भगवान् (महाविष्णु) कारणार्णव में शयन करते रहते हैं, किन्तु वे उससे बाहर निकल कर और अपने को हिरण्यगर्भ के रूप में विभाजित करके प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो गये और उन्होंने हजारों-हजारों पाँव, भुजा, मुँह, सिर वाला विराट रूप धारण कर लिया।
तात्पर्य
प्रत्येक ब्रह्माण्ड के भीतर लोकों का विस्तार भगवान् के विराट रूप के विभिन्न अंगों के रूप में होता है, जिनका वर्णन अगले श्लोक में हुआ है।
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