यस्य—जिसका; इह—इस ब्रह्माण्ड में; अवयवै:—शरीर के अंगों के द्वारा; लोकान्—सारे लोक; कल्पयन्ति—कल्पना करते हैं; मनीषिण:—बड़े-बड़े दार्शनिक; कटि-आदिभि:—कमर से नीचे; अध:—नीचे की ओर; सप्त—सात लोक; सप्त ऊर्ध्वम्—तथा सात लोक ऊपर की ओर; जघन-आदिभि:—सामने का हिस्सा ।.
अनुवाद
बड़े-बड़े दार्शनिक कल्पना करते हैं कि ब्रह्माण्ड में सारे लोक भगवान् के विराट शरीर के विभिन्न ऊपरी तथा निचले अंगों के प्रदर्शन हैं।
तात्पर्य
कल्पयन्ति शब्द महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है ‘कल्पना करते हैं।’ भगवान् का विराट रूप उन दार्शनिकों की कल्पना है, जो भगवान् श्रीकृष्ण के दो भुजाओं वाले शाश्वत रूप को नहीं मानते। यद्यपि महान् दार्शनिकों द्वारा कल्पित भगवान् का विराट रूप भगवान् के स्वरूपों में से एक है, किन्तु यह न्यूनाधिक काल्पनिक ही है। कहा गया है कि सात ऊर्ध्वलोक इस विराट रूप की कटि के ऊपर स्थित हैं और सात अधोलोक उनकी कटि के नीचे स्थित हैं। कहने का भाव यह है कि भगवान् अपने शरीर के प्रत्येक अंग से अवगत हैं और सृष्टि का कोई भी भाग उनके नियन्त्रण से परे नहीं है।
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