भगवान् के विराट रूप के वक्षस्थल से गर्दन तक के प्रदेश में जनलोक तथा तपोलोक स्थित हैं जबकि सर्वोच्च लोक, सत्यलोक, इस विराट रूप के सिर पर स्थित है। किन्तु आध्यात्मिक लोक शाश्वत हैं।
तात्पर्य
इसी ग्रंथ में हम अनेक बार बता चुके हैं कि आध्यात्मिक लोक भौतिक आकाश से परे स्थित हैं और इस श्लोक से उस वर्णन की पुष्टि होती है। यहाँ पर सनातन शब्द महत्त्वपूर्ण है। भगवद्गीता (८.२०) में नित्यता का यही भाव व्यक्त हुआ है, जहाँ यह कहा गया है कि इस भौतिक जगत के परे आध्यात्मिक आकाश है, जहाँ प्रत्येक वस्तु शाश्वत है। कभी-कभी सत्यलोक, जहाँ ब्रह्मा निवास करते हैं, ब्रह्मलोक भी कहा जाता है। किन्तु यहाँ जिस ब्रह्म-लोक का उल्लेख हुआ है, वह सत्यलोक नहीं है। यह ब्रह्मलोक शाश्वत है, जबकि सत्यलोक शाश्वत नहीं होता। इन दोनों में अन्तर बताने के लिए सनातन विशेषण का प्रयोग किया गया है। श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, ब्रह्मलोक ब्रह्म या परमेश्वर का लोक या आवास है। आध्यात्मिक आकाश में सारे लोक साक्षात् भगवान् जैसे हैं। भगवान् परमात्मा हैं और उनका नाम, यश, गुण, लीलाएँ इत्यादि उनसे अभिन्न हैं, क्योंकि वे परम पूर्ण हैं। इस तरह भगवान् के धाम के लोक भी उनसे अभिन्न हैं। उन लोकों में न तो शरीर तथा न आत्मा में कोई अन्तर होता है, न वहाँ इस जगत में अनुभव किये जानेवाले काल का प्रभाव ही है। वहाँ पर काल का प्रभाव न होने के अतिरिक्त ब्रह्मलोक के सारे लोक आध्यात्मिक होने के कारण, कभी विनष्ट नहीं होते। आध्यात्मिक लोकों की सारी विविधता भगवान् से तदाकार है। अतएव इस वैदिक सूक्ति एकम् एवाद्वितीयम् की पूरी-पूरी अनुभूति उस विविधतामय आकाश में हो जाती है। यह भौतिक जगत भगवान् के आध्यात्मिक जगत की मृगमरीचिका मात्र है। छाया होने के कारण यह कभी शाश्वत नहीं होता। इस द्वैतपूर्ण (आत्मा तथा पदार्थ) भौतिक जगत की विविधता की तुलना आध्यात्मिक जगत से नहीं की जा सकती। कभी-कभी अल्पज्ञानी व्यक्ति ज्ञान के अभाव में छाया रूपी संसार को आध्यात्मिक जगत के तुल्य मान बैठते हैं और इस तरह से वे इस संसार में भगवान् तथा उनकी लीलाओं को और बद्धजीव तथा उनके कार्यकलापों को एक समान मान लेते हैं। भगवान् ने भगवद्गीता (९.११) में ऐसे अल्पज्ञों की भर्त्सना की है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
जब भी भगवान् अवतरित होते हैं, तो वे अपनी पूर्ण अंतरंगा शक्ति (आत्ममाया) से ऐसा करते हैं, किन्तु अल्पज्ञ उन्हें भौतिक सृष्टि में से एक समझ बैठते हैं। अतएव इस श्लोक की टीका करते हुए श्रील श्रीधर स्वामी ठीक ही कहते हैं कि यहाँ पर उल्लिखित ब्रह्मलोक वैकुण्ठ है, जो सनातन है, अतएव वह पूर्व-वर्णित भौतिक सृष्टियों जैसा नहीं है। भगवान् का विराट स्वरूप भौतिक जगत की कल्पना है। इसका आध्यात्मिक जगत या भगवान् के धाम से कोई सरोकार नहीं है।
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