नाहं वेद परं ह्यस्मिन्नापरं न समं विभो ।
नामरूपगुणैर्भाव्यं सदसत् किञ्चिदन्यत: ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; अहम्—मैं; वेद—जानता हूँ; परम्—श्रेष्ठ; हि—क्योंकि; अस्मिन्—इस संसार में; न—न तो; अपरम्—निकृष्ट; न— न तो; समम्—समान; विभो—हे महान्; नाम—नाम; रूप—लक्षण; गुणै:—योग्यता से; भाव्यम्—सृजित, सृष्ट; सत्—नित्य, शाश्वत; असत्—क्षण भंगुर; किञ्चित्—या अन्य इसी तरह की कोई वस्तु; अन्यत:—किसी अन्य स्रोत से ।.
अनुवाद
हम किसी विशेष वस्तु—श्रेष्ठ, निकृष्ट या समतुल्य, नित्य या क्षणिक—इनके नामों, लक्षणों तथा गुणों से जो भी समझ पाते हैं, वह आपके अतिरिक्त अन्य किसी स्रोत से सृजित नहीं होती, क्योंकि आप इतने महान् हैं।
तात्पर्य
यह व्यक्त जगत ८४,००,००० योनियों में उत्पन्न विविध प्रकार के जीवों से परिपूर्ण है। इनमें से कुछ श्रेष्ठ हैं, तो कुछ निकृष्ट। मानव समाज में मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी माना जाता है और मनुष्यों में भी विभिन्न किस्में होती हैं यथा उत्तम, निकृष्ट, समान इत्यादि। लेकिन नारदमुनि ने यह मान लिया कि उनके पिता ब्रह्मा के अतिरिक्त अन्य किसी में सृजन का स्रोत नहीं है। अतएव वे ब्रह्माजी से उनके विषय में सब कुछ जान लेना चाहते थे।
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