फिर भी जब हम आपके द्वारा पूर्ण अनुशासन में रहते हुए सम्पन्न कठिन तपस्याओं के विषय में सोचते हैं, तो हमें आपसे भी अधिक शक्तिशाली किसी व्यक्ति के अस्तित्व के विषय में आश्चर्य-चकित रह जाना होता है, यद्यपि आप सृष्टि के मामले में इतने शक्तिशाली हैं।
तात्पर्य
श्री नारद मुनि के चरण-चिह्नों का अनुसरण करते हुए मनुष्य को चाहिए कि वह अंधे की तरह गुरु को साक्षात् ईश्वर न मान ले। गुरु का सम्मान ईश्वर के समान ही किया जाता है, लेकिन जो गुरु अपने को साक्षात् ईश्वर कहे, उसे तुरन्त त्याग देना चाहिए। नारद मुनि ने ब्रह्मा को सृष्टि करने के अद्भुत कार्य के कारण परमेश्वर मान लिया था, लेकिन जब उन्होंने देखा कि ब्रह्माजी भी किसी श्रेष्ठ पुरुष की पूजा कर रहे हैं, तो उनको सन्देह हुआ। परमेश्वर तो श्रेष्ठतम हैं ही। उनका कोई आराध्य नहीं है। अहङ्ग्रहोपासिता या जो साक्षात् ईश्वर बनने के उद्देश्य से अपनी पूजा करता है भ्रामक है, लेकिन बुद्धिमान शिष्य तुरन्त पहचान सकता है कि परमेश्वर को ईश्वर बनने के लिए किसी की, यहाँ तक कि अपनी भी, पूजा करने की आवश्यकता नहीं रहती। भले ही दिव्य अनुभूति के लिए अहङ्ग्रहोपासना एक विधि हो, लेकिन इससे वह कभी ईश्वर नहीं बन सकता। कोई भी व्यक्ति आत्म-अनुभूति की विधि से ईश्वर नहीं बनता। नारद मुनि ने ब्रह्माजी को परम पुरुष के रूप में सोचा था, किन्तु जब उन्होंने देखा कि वे दिव्य अनुभूति की विधि में लगे हैं, तो उन्हें सन्देह हुआ। अतएव वे सही-सही जानकारी चाह रहे थे।
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