श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  2.6.1 
ब्रह्मोवाच
वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातव: ।
हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्मा उवाच—ब्रह्माजी ने कहा; वाचाम्—वाणी का; वह्ने:—अग्नि का; मुखम्—मुख; क्षेत्रम्—जनन-विन्दु; छन्दसाम्— वैदिक मन्त्रों का, यथा गायत्री का; सप्त—सात; धातव:—त्वचा तथा अन्य छ: स्तर; हव्य-कव्य—देवताओं तथा पितरों को दी गई भेंट; अमृत—मनुष्यों का भोजन; अन्नानाम्—सभी प्रकार के खाद्य पदार्थों का; जिह्वा—जीभ; सर्व—समस्त; रसस्य— समस्त व्यंजनों का; च—भी ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्माजी ने कहा : विराट पुरुष का मुख वाणी का उद्गम-विन्दु है और उसका नियामक देव अग्नि है। उनकी त्वचा तथा अन्य छह स्तर (आवरण) वैदिक मन्त्रों के उद्गम-विन्दु हैं और उनकी जीभ देवताओं, पितरों तथा सामान्यजनों को अर्पित करनेवाले विभिन्न खाद्यों तथा व्यंजनों (रसों) का उद्गम है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर भगवान् के विराट रूप के ऐश्वर्यों का वर्णन हुआ है। यह कहा गया है कि उनका मुख सभी प्रकार की वाणी का उद्गम-केन्द्र है और इसका अधिष्ठाता देव अग्निदेव है। उनकी त्वचा तथा शारीरिक रचना के अन्य छ: स्तर, गायत्री जैसे सात प्रकार के वैदिक मन्त्रों के सृजन-केन्द्र हैं। गायत्री समस्त मन्त्रों का शुभारम्भ है और श्रीमद्भागवत के प्रथम खण्ड में इसकी व्याख्या हुई है। चूँकि जितने जनन-केन्द्र हैं, वे भगवान् के विराट रूप के विभिन्न अंग हैं और चूँकि भगवान् का रूप भौतिक सृष्टि से परे है, अतएव यह समझना चाहिए कि वाणी, जीभ, त्वचा आदि से यह बोध होता है कि भगवान् का दिव्य रूप इनसे रहित नहीं होता। भौतिक वाणी या भोजन ग्रहण करने की शक्ति मूलत: भगवान् से उत्पन्न होती है। ऐसी क्रियाएँ मूल आगारों के विकृत प्रतिबिम्ब हैं—दिव्य अवस्था भी आध्यात्मिक विविधता से रहित नहीं होती। आध्यात्मिक जगत में भौतिक विविधता के विकृत स्वरूप अपने दिव्य मूल स्वरूप में पूरी तरह दिखते हैं। अन्तर केवल इतना ही होता है कि भौतिक कार्य-कलाप प्रकृति के तीन गुणों से कलुषित हो जाते हैं, जबकि आध्यात्मिक जगत में सारी शक्तियाँ शुद्ध होती हैं, क्योंकि वे भगवान् की अनन्य दिव्य भक्ति में लगी रहती हैं। आध्यात्मिक जगत में भगवान् प्रत्येक वस्तु के भव्य भोक्ता हैं और सारे जीव भौतिक प्रकृति के गुणों के कल्मष से रहित भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे रहते हैं। आध्यात्मिक जगत के कार्यकलाप भौतिक जगत के किसी भी उन्माद से रहित होते हैं, किन्तु आध्यात्मिक पद पर निर्विशेषवादी जिस निर्विशेष शून्यता की बात करते हैं वहाँ वह नहीं पाई जाती। नारद पञ्चरात्र में भक्तिमय सेवा की परिभाषा इस प्रकार दी गई है—

सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्।

हृषीकेण हृषीकेशसेवनं भक्तिरुच्यते ॥

चूँकि मूलत: सारी इन्द्रियाँ भगवान् के इन्द्रिय-आगार से उत्पन्न होती हैं, अतएव भौतिक जगत के कामोद्दीपक कार्यों को भक्ति की विधि से शुद्ध करना होता है और इस तरह हम अपने भौतिक कार्यों की वर्तमान अवस्था को शुद्ध करके जीवन की सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। शुद्धिकरण की यह प्रक्रिया विभिन्न उपाधियों की धारणा से मुक्त होने की अवस्था से प्रारम्भ होती है। प्रत्येक जीव किसी न किसी सेवा में लगा है, चाहे वह अपनी सेवा हो या अपने परिवार, समाज या देश की सेवा हो, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसी सारी सेवाएँ भौतिक आसक्ति के कारण ही सम्पन्न की जाती हैं। भौतिक आसक्तियों को मात्र भगवान् की सेवा में बदल देना चाहिए और इस प्रकार इस भौतिक आसक्ति से मुक्त होने का उपचार स्वत: प्रारम्भ हो जाता है। इस तरह मुक्ति की विधि अन्य सभी विधियों की अपेक्षा भक्तिमय सेवा के माध्यम से सरल है, क्योंकि भगवद्गीता (१२.५) में कहा गया है कि यदि कोई निर्विशेष रूप में आसक्त होता है, तो उसे नाना प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं— क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।

 
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