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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 13-16
 
 
श्लोक  2.6.13-16 
अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजा: ।
सुरासुरनरा नागा: खगा मृगसरीसृपा: ॥ १३ ॥
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगा: ।
पशव: पितर: सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमा: ॥ १४ ॥
अन्ये च विविधा जीवा जलस्थलनभौकस: ।
ग्रहर्क्षकेतवस्तारास्तडित: स्तनयित्नव: ॥ १५ ॥
सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् ।
तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
अहम्—मैं; भवान्—आप; भव:—शिवजी; —भी; एव—निश्चय ही; ते—वे; इमे—सभी; मुनय:—मुनिगण; अग्र-जा:— तुमसे बड़े; सुर—देवता; असुर—असुर; नरा:—मनुष्य; नागा:—नागलोक के निवासी; खगा:—पक्षी; मृग—पशु; सरीसृपा:—रेंगनेवाले जीव; गन्धर्व-अप्सरस:, यक्षा:, रक्ष:-भूत-गण-उरगा:, पशव:, पितर:, सिद्धा:, विद्याध्रा:, चारणा:— विभिन्न लोकों के सारे वासी; द्रुमा:—वनस्पति जगत; अन्ये—अन्य अनेक; —भी; विविधा:—विभिन्न प्रकार के; जीवा:— जीव; जल—जल; स्थल—भूमि; नभ-ओकस:—आकाश के वासी या पक्षी; ग्रह—ग्रह-नक्षत्र; ऋक्ष—प्रभावशाली नक्षत्र; केतव:—पुच्छलतारा; तारा:—सितारे; तडित:—बिजली; स्तनयित्नव:—बादलों का गर्जन; सर्वम्—हर वस्तु; पुरुष:— भगवान्; एव इदम्—निश्चय ही ये सब; भूतम्—सृष्ट; भव्यम्—जो रचा जायेगा; भवत्—जो रचा जा चुका है; —भी; यत्— जो कुछ; तेन इदम्—वह सब उनके कारण है; आवृतम्—ढका हुआ; विश्वम्—विश्व; वितस्तिम्—एक बालिश्त; अधितिष्ठति—स्थित ।.
 
अनुवाद
 
 मुझसे (ब्रह्मा से) लेकर तुम तथा भव (शिव) तक जितने भी बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमसे पूर्व हुए हैं, वे, देवतागण, असुरगण, नाग, मनुष्य, पक्षी, पशु, सरीसृप आदि तथा समस्त ब्रह्माण्डों की सारी दृश्य-अभिव्यक्तियाँ यथा ग्रह, नक्षत्र, पुच्छलतारे, सितारे, विद्युत, गर्जन तथा विभिन्न लोकों के वासी यथा गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, भूतगण, उरग, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण एवं अन्य विविध प्रकार के जीव जिनमें पक्षी, पशु तथा वृक्ष एवं अन्य जो कुछ हो सकता है, सभी सम्मिलित हैं—वे सभी भूत, वर्तमान तथा भविष्य सभी कालों में भगवान् के विराट रूप द्वारा आच्छादित हैं यद्यपि वे इन सबों से परे रहते हैं और सदैव एक बालिश्त आकार के रूप में रहते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् अपनी आंशिक अभिव्यक्ति द्वारा परमात्मा के रूप में नौ इंच से अधिक माप के नहीं होते। वे अपनी योगमाया से विराट रूप में विस्तार करते हैं, जिसमें चराचर जीवों की विभिन्न किस्मों के रूप में व्यक्त जैविक तथा अजैविक सारी वस्तुएँ आ जाती हैं। अतएव ब्रह्माण्ड की व्यक्त किस्में भगवान् से भिन्न नहीं होतीं, जिस प्रकार विभिन्न रूप-रंग के सुनहले आभूषण स्वर्ण की मूल राशि से भिन्न नहीं होते। दूसरे शब्दों में, भगवान् वह परम पुरुष है, जो सृष्टि के भीतर प्रत्येक वस्तु पर नियन्त्रण रखता है और फिर भी वह समस्त व्यक्त भौतिक सृष्टि से भिन्न पृथक् परम सत्ता बना रहता है। इसीलिए भगवद्गीता (९.४-५) में उन्हें योगेश्वर कहा गया है। प्रत्येक वस्तु भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति पर निर्भर है, फिर भी वे ऐसे रूपों से पृथक् और परे रहते हैं। ऋग मन्त्र के वैदिक पुरुष-सूक्त में भी इसकी पुष्टि हुई है। एक ही साथ एकात्म तथा वैभिन्य के इस दार्शनिक सत्य का प्रतिपादन भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने किया था और यह अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व कहलाता है। ब्रह्मा, नारद तथा अन्य सभी एक ही समय भगवान् के साथ एक तथा उनसे पृथक् हैं। हम सभी उनके साथ उसी तरह हैं जिस तरह सोने के आभूषण गुण में स्वर्णराशि के समान हैं, लेकिन सोने का कोई भी एक आभूषण मात्रा में स्वर्ण-राशि के तुल्य नहीं होता। यह स्वर्ण-राशि कभी समाप्त नहीं होती, चाहे उससे असंख्य आभूषण क्यों न बनाये जाँय, क्योंकि यह राशि पूर्णम् है; यदि पूर्णम् में से पूर्णम् निकाल लिया जाय तो भी परम पूर्णम्, पूर्णम् ही बना रहता है। यह तथ्य हमारी वर्तमान अपूर्ण इन्द्रियों द्वारा अचिन्त्य है। इसीलिए भगवान् चैतन्य अपने दार्शनिक सिद्धान्त को अचिन्त्य कहते हैं और जैसाकि भगवद्गीता तथा भागवत से भी पुष्टि होती है, भगवान् चैतन्य का अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व परम सत्य विषयक पूर्ण दर्शन है।
 
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