स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ ।
एवं विराजं प्रतपंस्तपत्यन्तर्बहि: पुमान् ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
स्व-धिष्ण्यम्—विकिरण, प्रकाश; प्रतपन्—विस्तार से; प्राण:—प्राण; बहि:—बाहर; च—भी; प्रतपति—प्रकाशित करता है; असौ—सूर्य; एवम्—इस तरह से; विराजम्—विराट स्वरूप; प्रतपन्—के विस्तार से; तपति—जीवन प्रदान करता है; अन्त:— भीतर से; बहि:—बाहर से; पुमान्—परम पुरुष ।.
अनुवाद
सूर्य अपने विकिरणों का विस्तार करके भीतर तथा बाहर प्रकाश वितरित करता है। इसी प्रकार से भगवान् अपने विराट रूप का विस्तार करके इस सृष्टि में प्रत्येक वस्तु का भीतर से तथा बाहर से पालन करते हैं।
तात्पर्य
यहाँ पर भगवान् के विराट रूप का, या उनके निर्विशेष स्वरूप का जो ब्रह्मज्योति कहलाता है, स्पष्ट विवेचन हुआ है और उसकी तुलना सूर्य-प्रकाश के वितरण से की गई है। सूर्य प्रकाश सारे ब्रह्माण्ड में फैल सकता है, लेकिन सूर्यलोक या सूर्य नारायण, जो कि उसका स्रोत है, वही ऐसे प्रकाश का मूलाधार है। इसी प्रकार भगवान् कृष्ण ब्रह्मज्योति या भगवान् के निर्विशेष स्वरूप के आधार हैं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (१४.२७) में हुई है। अतएव भगवान् का विराट रूप उनके निर्विशेष स्वरूप की गौण कल्पना है किन्तु मूल स्वरूप तो दो हाथोंवाला अपनी शाश्वत बंशी बजाता श्यामसुन्दर स्वरूप है। भगवान् के वितरित प्रकाश का पचहत्तर प्रतिशत आध्यात्मिक आकाश (त्रिपाद् विभूति) में व्यक्त होता है और शेष पचीस प्रतिशत भौतिक ब्रह्माण्डों के समग्र विस्तार को आलोकित करता है। इसकी विवेचना तथा उल्लेख भगवद्गीता (१०.४२) में मिलते हैं। इस तरह भगवान् के प्रकाश का पचहत्तर प्रतिशत विस्तार उनकी अन्तरंगा शक्ति कहलाती है और शेष पचीस प्रतिशत बहिरंगा शक्ति कहलाती है। सारे जीव आध्यात्मिक तथा भौतिक विस्तारों के निवासी हैं, वे उनकी तटस्था शक्ति कहलाते हैं और उन्हें छूट मिलती है कि चाहे वे बहिरंगा शक्ति में रहें या अन्तरंगा शक्ति में। जो लोग भगवान् के आध्यात्मिक विस्तार की परिधि में रहते हैं, वे मुक्तात्मा कहलाते हैं और जो बाह्य विस्तार में रहते हैं, वे बद्धजीव हैं। हम इन दोनों विस्तारों के निवासियों की संख्या का अनुमान लगा सकते हैं और आसानी से इस तरह इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मुक्तात्माओं की संख्या बद्धजीवों की तुलना में कहीं अधिक है।
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