श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  2.6.20 
पादास्त्रयो बहिश्चासन्नप्रजानां य आश्रमा: ।
अन्तस्त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्‍व्रत: ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
पादा: त्रय:—भगवान् की शक्ति के तीन चौथाई का जगत; बहि:—इस प्रकार बाहर स्थित; च—तथा; आसन्—थे; अप्रजानाम्—जिनका पुनर्जन्म नहीं होता; ये—जो; आश्रमा:—जीवन के स्तर; अन्त:—भीतर; त्रि-लोक्या:—तीनों जगतों का; तु—लेकिन; अपर:—अन्य; गृह-मेध:—गृहस्थी में आसक्त; अबृहत्-व्रत:—कठोर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किये बिना ।.
 
अनुवाद
 
 आध्यात्मिक जगत, जो भगवान् की तीन चौथाई शक्ति से बना है, इस भौतिक जगत से परे स्थित है और यह उन लोगों के निमित्त है, जिनका पुनर्जन्म नहीं होता। अन्य लोगों को जो गृहस्थ जीवन के प्रति आसक्त हैं और ब्रह्मचर्य व्रत का कठोरता से पालन नहीं करते, तीन लोकों के अन्तर्गत रहना ही होता है।
 
तात्पर्य
 श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में वर्णाश्रम धर्म या सनातन धर्म की सर्वोच्चता का स्पष्ट उल्लेख है। मनुष्य को जो सबसे बड़ा लाभ प्रदान किया जा सकता है, वह उसे विषयी जीवन से विरक्त होने की शिक्षा का दान है, क्योंकि विषय-वासना में लिप्त रहने के कारण ही बद्धजीवन जन्म- जन्मातर चलता रहता है। जिस मानवीय सभ्यता में विषयी जीवन पर कोई नियन्त्रण नहीं होता, वह चतुर्थ कोटि की सभ्यता है, क्योंकि ऐसे वातावरण में भौतिक शरीर में बन्दी आत्मा की मुक्ति सम्भव नहीं है। जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग भौतिक शरीर से जुड़े हैं; उन्हें आत्मा से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। किन्तु जब तक ऐन्द्रिय भोग के लिए शारीरिक आसक्ति को प्रोत्साहन मिलता रहता है, तब तक भौतिक शरीर के कारण आत्मा को बाध्य होकर जन्म तथा मृत्यु के चक्कर में आना पड़ता है, जिसकी तुलना वस्त्रों की जीर्णता से की जा सकती है।

मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लाभ प्रदान करने के लिए वर्णाश्रम-प्रणाली में अनुयायी को ब्रह्मचारी आश्रम से ही ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने की शिक्षा दी जाती है। ब्रह्मचारी-जीवन उन विद्यार्थियों के लिए हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन करने की शिक्षा दी जाती है। जिन किशोरों ने विषयी जीवन का आस्वाद नहीं किया, वे सरलतापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सकते हैं और एक बार इस आश्रम में स्थिर हो जाने पर वे सर्वोच्च सिद्धावस्था तक पहुँचकर भगवान् की तीन चौथाई शक्तिवाले लोक को प्राप्त कर सकते हैं। यह पहले बताया जा चुका है कि भगवान् की तीन चौथाई शक्तिवाले लोक में न तो मृत्यु है, न भय और वहाँ मनुष्य-जीवन आनन्द तथा ज्ञान से ओतप्रोत रहता है। यदि गृहस्थ ब्रह्मचारी जीवन के नियमों में प्रशिक्षित किया जाता है, तो वह सरलता से विषयी जीवन का परित्याग कर सकता है। गृहस्थ को पचास वर्ष की आयु में गृहत्याग करने (पञ्चशोर्ध्वं वनं व्रजेत्) और जंगल में जीवन व्यतीत करने की संस्तुति की जाती है। इससे वह पारिवारिक स्नेह से पूर्णतया विरक्त होकर, संन्यासी बनकर पूरी तरह से भगवान् की सेवा में लग सकता है। धार्मिक सिद्धान्तों का कोई भी रूप जिसमें अनुयायियों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना सिखलाया जाता है, मानवसमाज के लिए कल्याणकर है, क्योंकि जिन्हें इस प्रकार का प्रशिक्षण मिला है, केवल वे ही संसार के दुखमय जीवन का अन्त कर सकते हैं। भगवान् बुद्ध द्वारा बताये गये निर्वाण के नियम भी दुखमय जीवन का अन्त करने के लिए हैं। और यही विधि यहाँ पर अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में श्रीमद्भागवत में संस्तुत की जा रही है, यद्यपि बौद्ध, शंकरवादी तथा वैष्णव विधियों में कोई अन्तर नहीं है। जीवन की सर्वोच्च सिद्धावस्था, जिसमें जन्म, मृत्यु, चिन्ता तथा भय से मिलती है, प्राप्त करने के लिए इनमें से किसी भी विधि में अनुयायी द्वारा ब्रह्मचर्य-व्रत को खण्डित नहीं होने दिया जाता।

जो गृहस्थ तथा व्यक्ति जानबूझ कर ब्रह्मचर्य-व्रत भंग करते हैं, उन्हें अमर लोक में प्रविष्ट होने नहीं दिया जाता। पवित्र गृहस्थ या भ्रष्ट योगी को इसी भौतिक जगत के भीतर उच्चतर लोकों में भेजा जाता है (जो भगवान् की चतुर्थांश शक्ति हैं), किन्तु वे अमरलोक मेंं प्रविष्ट नहीं हो पाते। अबृहद्-व्रत वे हैं, जो ब्रह्मचर्य व्रत का खंडन करते हैं। वानप्रस्थ तथा संन्यासी यदि वे इस विधि में सफलता चाहते हैें, इस ब्रह्मचर्य-व्रत को खंडित नहीं कर सकते। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा संन्यासी न तो पुनर्जन्म चाहते हैं (अप्रज), न ही वे लुक-छिप कर विषयी जीवन में लिप्त होते हैं। ऐसे अध्यात्मवादी भ्रष्ट होने पर विद्वान ब्राह्मणों या धनी व्यापारियों के परिवार में पुन: मनुष्य-जन्म धारण करते हैं, जिससे वे पुन: ऊपर उठ सकें, किन्तु सबसे अच्छी बात यह होगी कि ज्योंही मनुष्य योनि प्राप्त हो त्योंही अमरता की चरम सिद्धि प्राप्त कर ली जाय, अन्यथा मनुष्य जीवन की सारी नीतिकुशलता असफल हो जायेगी। भगवान् चैतन्य अपने अनुयायियों को ब्रह्मचर्य पालन करने की शिक्षा देने में अत्यन्त कट्टर थे। उन्होंने अपने एक निजी सेवक छोटे हरिदास को ब्रह्मचर्य व्रत पालन न कर सकने के लिए कठोर सजा दी थी। अतएव जो योगी भौतिक दुखों से परे के लोक में जाने का इच्छुक हो उसके लिए जान-बूझकर विषयी जीवन में लिप्त होना आत्मघात के तुल्य होगा और संन्यासी के लिए तो विशेष रूप से। संन्यास आश्रम में विषयी जीवन धार्मिक जीवन का सर्वाधिक विकृत रूप है और ऐसे पथभ्रष्ट व्यक्ति की रक्षा तभी हो सकती है, जब भाग्यवश उसकी भेंट किसी शुद्ध भक्त से हो सके।

 
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