इस श्लोक में विश्वङ् शब्द महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति कार्य के प्रत्येक क्षेत्र में कुशलतापूर्वक विचरण कर सके, वह पुरुष या क्षेत्रज्ञ कहलाता है। ये दोनों शब्द आत्मा तथा परमात्मा अर्थात् भगवान् दोनों के लिए समान रूप से लागू होते हैं। भगवद्गीता (१३.३) में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है— क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥
क्षेत्र का अर्थ है स्थान और जो उस स्थान को जानता है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है। आत्मा अपने सीमित कार्यक्षेत्र के बारे में जानता रहता है, लेकिन परमात्मा असीमित कार्य-क्षेत्र के बारे में जानता है। आत्मा अपने ही चिन्तन, अनुभूति तथा आकांक्षाओं के विषय में जानता है, लेकिन परमात्मा परम नियन्ता होने तथा सर्वत्र उपस्थित रहने के कारण हर एक के चिन्तन, अनुभूति तथा आकांक्षाओं को जानते रहते हैं और इस तरह प्रत्येक जीव अपने निजी व्यापारों का सूक्ष्म स्वामी होता है, जबकि भगवान् सबों के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के व्यापारों के स्वामी हैं (वेदाहं समतीतानि)। जो अज्ञानी है, वही भगवान् तथा जीवों के इस अन्तर को नहीं जानता। जीव संज्ञानहीन जड़ पदार्थ से भिन्न होते हुए गुणात्मक रूप से भगवान् के तुल्य होता है, किन्तु भूत, वर्तमान तथा भविष्य की पूर्ण जानकारी के मामले में, वह कभी भगवान् के समकक्ष नहीं हो सकता।
तथा चूँकि जीव आंशिक रूप से ज्ञाता है, अतएव वह कभी-कभी अपनी पहचान भूल जाता है। यह विस्मृति भगवान् की एकपाद विभूति के क्षेत्र में या भौतिक जगत में विशेष रूप से व्यक्त होती है, किन्तु त्रिपाद विभूति के कार्य-क्षेत्र में या आध्यात्मिक जगत में जीव में यह विस्मृति नहीं पाई जाती, क्योंकि वे विस्मृति से उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के कल्मषों से मुक्त होते हैं। भौतिक शरीर विस्मृति के स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों का प्रतीक है; इसलिए भौतिक जगत का सम्पूर्ण वातावरण अविद्या कहलाता है, जबकि आध्यात्मिक जगत का सारा वातावरण विद्या कहलाता है। इस अविद्या की विभिन्न अवस्थाएँ हैं और वे धर्म, अर्थ तथा मोक्ष के नाम से जानी जाती हैं। मोक्ष का जो भाव अद्वैतवादियों द्वारा मान्य है और जीव का भगवान् में तदाकार होना बताता है, वह भी भौतिकतावाद या विस्मृति की अन्तिम अवस्था है। आत्मा तथा परमात्मा के गुणात्मक तादात्म्य का ज्ञान अधूरा ज्ञान है तथा अज्ञान है, क्योंकि इससे मात्रात्मक अन्तर का ज्ञान नहीं हो पाता, जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है। जीवात्मा कभी भी ज्ञान में भगवान् के तुल्य नहीं हो सकता, अन्यथा वह विस्मृति की अवस्था को प्राप्त न होता। इस तरह, चूँकि जीवात्मा में विस्मृति की अवस्था पाई जाती है, अतएव जीव तथा भगवान् में वैसा ही अन्तर होता है जैसाकि एक अंश तथा पूर्ण में होता है। अंश कभी पूर्ण के बराबर नहीं हो सकता। अतएव भगवान् के साथ जीव की शत-प्रतिशत समता की अवधारणा भी अविद्या है।
अविद्या के क्षेत्र में सारे कार्य प्रकृति पर प्रभुता जताने की दिशा में निर्देशित रहते हैं। अतएव भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति प्रभुता जताने के लिए भौतिक ऐश्वर्य अर्जित करने में जुटा रहता है। अतएव सदैव कलह या हताशा व्याप्त रहती है, जो अविद्या के लक्षण हैं। किन्तु ज्ञान के क्षेत्र में भगवान् की भक्तिमय सेवा की जाती है। अतएव भक्ति कार्यों को मुक्त अवस्था में अविद्या के द्वारा दूषित होने का अवसर ही नहीं मिल पाता। इस तरह भगवान् अविद्या तथा विद्या, दोनों ही क्षेत्रों के स्वामी (क्षेत्रज्ञ) हैं और यह तो जीव की रुचि पर निर्भर करता है कि वह इन क्षेत्रों में से किसमें रहे।