श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  2.6.23 
यदास्य नाभ्यान्नलिनादहमासं महात्मन: ।
नाविदं यज्ञसम्भारान् पुरुषावयवानृते ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
यदा—जब; अस्य—उसकी; नाभ्यात्—नाभि से; नलिनात्—कमल के फूल से; अहम्—मैंने; आसम्—जन्म लिया; महा- आत्मन:—महापुरुष की; न अविदम्—नहीं जाना; यज्ञ—यज्ञ की; सम्भारान्—सामग्री; पुरुष—भगवान् के; अवयवान्—शरीर के अंग; ऋते—के बिना ।.
 
अनुवाद
 
 जब मैं महापुरुष भगवान् (महा-विष्णु) के नाभि-कमल पुष्प से उत्पन्न हुआ था, तो मेरे पास यज्ञ-अनुष्ठानों के लिए उस महापुरुष के शारीरिक अंगों के अतिरिक्त अन्य कोई सामग्री न थी।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्माजी स्वयम्भू कहे जाते हैं, जिसका अर्थ है, वह जो माता-पिता के बिना उत्पन्न हुआ हो। सृष्टि का सामान्य नियम यह है कि माता (मादा) तथा पिता (नर) के संसर्ग के फलस्वरूप ही जीव उत्पन्न होता है। किन्तु आदि-जीव ब्रह्मा भगवान् कृष्ण के पूर्ण अंश महाविष्णु के नाभि-कमल से उत्पन्न होते हैं। यह नाभि-कमल भगवान् के शरीर का एक अंग है और ब्रह्माजी इसी कमल से उत्पन्न होते हैं। अतएव ब्रह्माजी भी भगवान् के शरीर के अंग हैं। प्रकट होने के बाद ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड के विराट शून्य में अन्धकार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा। उन्हें बेचैनी हुई और उनके हृदय में से भगवान् ने उन्हें प्रेरित किया कि वे तपस्या करें, जिससे यज्ञ-अनुष्ठान के लिए सामग्री प्राप्त हो सके। लेकिन, इन दोनों अर्थात् महाविष्णु तथा ब्रह्मा के अलावा वहाँ अन्य कुछ भी न था। यज्ञ अनुष्ठान के लिए अनेक सामग्रियों की, विशेष रूप से पशुओं की, आवश्यकता थी। पशु-यज्ञ कभी भी पशु-हत्या के निमित्त नहीं किया जाता, अपितु यज्ञ को सफल बनाने के लिए किया जाता है। यद्यपि यज्ञ-अग्नि में भेंट किया गया पशु नष्ट हो जाता है, किन्तु पटु पुरोहित द्वारा उच्चारित वैदिक मन्त्रों से अगले क्षण उसे नवीन जीवन प्रदान कर दिया जाता है। जब ऐसा पटु पुरोहित उपलब्ध नहीं होता, तो यज्ञ की बलि-वेदी में पशु-यज्ञ करना वर्जित है। इस तरह ब्रह्मा ने यज्ञ की सामग्री भी गर्भोदकशायी विष्णु के अंगों से ही तैयार की, जिसका अर्थ यह हुआ कि ब्रह्मा ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की। यद्यपि कुछ नहीं से कुछ नहीं उत्पन्न होता है, किन्तु भगवान् के शरीर से प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती है। भगवद्गीता (१०.८) में भगवान् कहते हैं—अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते—प्रत्येक वस्तु मेरे शारीरिक अंगों से निर्मित है, अतएव मैं ही समस्त सृष्टि का मूल स्रोत हूँ।

निर्विशेषवादियों का तर्क है कि जब प्रत्येक वस्तु साक्षात् भगवान् के अतिरिक्त कुछ नहीं है, तो भगवान् की पूजा करने से क्या लाभ है? किन्तु सगुणवादी बड़ी ही कृतज्ञता के साथ भगवान् की पूजा भगवान् के शारीरिक अंगों से उत्पन्न सामग्री का उपयोग करते हुए करता है। फल तथा फूल पृथ्वी के शरीर से प्राप्त होते हैं, फिर भी बुद्धिमान भक्त पृथ्वी से ही उत्पन्न सामग्री से माता पृथ्वी की पूजा करते हैं। इसी प्रकार माता गंगा की पूजा गंगा-जल से की जाती है, फिर भी पूजक को ऐसी पूजा का फल भोगने को मिलता है। भगवान् की भी पूजा भगवान् के शारीरिक अंगों से उत्पन्न सामग्री द्वारा की जाती है, तो भी पूजक जो स्वयं भगवान् का अंश है भगवान् की भक्ति का फल प्राप्त करता है। एक ओर जहाँ निर्विशेषवादी त्रुटिवश इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि वह साक्षात् भगवान् है, वहीं सगुणवादी कृतज्ञता-पूर्वक भक्ति से भगवान् की पूजा करता है और जानता रहता है कि भगवान् से भिन्न कुछ भी नहीं है। अतएव भक्त प्रत्येक वस्तु को भगवान् की सेवा में लगाना चाहता है, क्योंकि वह यह जानता है कि प्रत्येक वस्तु तो भगवान् की सम्पत्ति है, उसे कोई अपनी नहीं कह सकता। यह एकात्म की पूर्ण धारणा पूजक को भगवान् की प्रेमाभक्ति में रत रहने में सहायक होती है, लेकिन निर्विशेषवादी झूठे ही गर्वित होकर सदा अभक्त बना रहता है और भगवान् कभी उसे मान्यता प्रदान नहीं करते।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥