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श्लोक  |
तेषु यज्ञस्य पशव: सवनस्पतय: कुशा: ।
इदं च देवयजनं कालश्चोरुगुणान्वित: ॥ २४ ॥ |
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शब्दार्थ |
तेषु—ऐसे यज्ञों में; यज्ञस्य—यज्ञ की सम्पन्नता का; पशव:—पशु या यज्ञ की सामग्री; स-वनस्पतय:—फल-फूल सहित; कुशा:—कुश; इदम्—ये सब; च—भी; देव-यजनम्—यज्ञ की वेदी; काल:—उपुयक्त समय; च—भी; उरु—अत्यधिक; गुण-अन्वित:—योग्य ।. |
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अनुवाद |
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यज्ञोत्सवों को सम्पन्न करने के लिए फूल, पत्ती, कुश जैसी यज्ञ-सामग्रियों के साथ-साथ यज्ञ-वेदी तथा उपयुक्त समय (वसन्त) की भी आवश्यकता होती है। |
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