गतय:—चरम लक्ष्य (विष्णु) की प्राप्ति; मतय:—देवताओं की पूजा; च—भी; एव—निश्चय ही; प्रायश्चित्तम्—पश्चात्ताप; समर्पणम्—अन्तिम रूप से भेंट; पुरुष—भगवान्; अवयवै:—भगवान् के शरीर के अंगों से; एते—ये; सम्भारा:—अवयव, सामग्री; सम्भृता:—आयोजित; मया—मेरे द्वारा ।.
अनुवाद
इस प्रकार मुझे भगवान् के शारीरिक अंगों से ही यज्ञ के लिए इन आवश्यक सामग्रियों की तथा साज-सामान की व्यवस्था करनी पड़ी। देवताओं के नामों के आवाहन से चरम लक्ष्य विष्णु की क्रमश: प्राप्ति हुई और इस प्रकार प्रायश्चित्त तथा पूर्णाहुति पूरी हुई।
तात्पर्य
इस श्लोक में समस्त सामग्रियों के स्रोत के रूप में, भगवान् के व्यक्तिगत स्वरूप पर अधिक बल दिया है, न कि निर्विशेष ब्रह्मज्योति पर। भगवान् नारायण समस्त यज्ञ-फलों के लक्ष्य हैं, अतएव वैदिक मन्त्र अन्ततोगत्वा इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए होते हैं। इस तरह नारायण को प्रसन्न करके तथा वैकुण्ठधाम में नारायण के प्रत्यक्ष सान्निध्य द्वारा समाधिस्थ होकर जीवन को सफल बनाया जा सकता है।
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