सामान्य लोग सदैव मन:शान्ति या विश्वशान्ति के लिए चिन्तित रहते हैं, किन्तु वे यह नहीं जान पाते कि विश्व-शान्ति का ऐसा कोई मानक किस तरह प्राप्त किया जाय। ऐसी विश्वशान्ति यज्ञ तथा तप द्वारा प्राप्त की जा सकती है। भगवद्गीता (५.२९) में निम्नलिखित सूत्र दिया गया है : भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
“कर्मयोगी जानते हैं कि परमेश्वर समस्त यज्ञों के तथा संयमी जीवन के असली भोक्ता तथा पालक हैं। वे यह भी जानते हैं कि भगवान् समस्त लोकों के परम स्वामी हैं तथा समस्त जीवों के वास्तविक मित्र हैं। ऐसा ज्ञान अनन्य भक्तों की संगति के माध्यम से कर्मयोगी को भगवान् धीरे धीरे शुद्ध भक्त बना देते हैं और इस तरह वे भवबन्धन से मुक्त होने में समर्थ होते हैं।”
इस भौतिक जगत के आदि-जीव ब्रह्मा ने हमें यज्ञ की विधि बतलाई। यज्ञ शब्द अन्य पुरुष की तुष्टि के लिए अपने स्वार्थों के समर्पण का द्योतक है। समस्त कार्यों की यही विधि है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के लिए अपने हितों की बलि चढ़ाता रहता है, चाहे वह परिवार के रूप में हो, या समाज या जाति अथवा देश या सम्पूर्ण मानव समाज हो। किन्तु ऐसे यज्ञों को पूर्णता तभी प्राप्त होती है, जब वे परम पुरुष भगवान् के निमित्त किये जाते हैं। चूँकि भगवान् प्रत्येक वस्तु के स्वामी, समस्त प्राणियों के सखा, यज्ञकर्ता के पालक एवं यज्ञ-सामग्री के दाता हैं, अतएव समस्त यज्ञों द्वारा केवल उन्हीं को तुष्ट करना चाहिए, अन्य किस को नहीं।
सारा संसार विद्या, सामाजिक उत्थान, आर्थिक विकास तथा मानव दशा को पूर्णत: सुधारने की योजनाओं को समुन्नत बनाने में अपनी शक्ति की आहुति करने में लगा है, किन्तु कोई भी व्यक्ति भगवान् के निमित्त यज्ञ करने में रुचि नहीं रखता, जिसका उपदेश भगवद्गीता में किया गया है। अतएव संसार में शान्ति नहीं है। यदि सारे लोग सचमुच विश्व शान्ति चाहते हैं, तो उन्हें परम स्वामी तथा सबों के सखा के निमित्त यज्ञ सम्पन्न करना चाहिए।