श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  2.6.3 
रूपाणां तेजसां चक्षुर्दिव: सूर्यस्य चाक्षिणी ।
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रमाकाशशब्दयो: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
रूपाणाम्—सभी प्रकार के रूपों के लिए; तेजसाम्—सभी प्रकाशमानों का; चक्षु:—आँखें; दिव:—चमकने वाला; सूर्यस्य— सूर्य के; च—भी; अक्षिणी—नेत्र-गोलक; कर्णौ—दो कान; दिशाम्—समस्त दिशाओं का; च—तथा; तीर्थानाम्—समस्त वेदों का; श्रोत्रम्—श्रवणेन्द्रिय; आकाश—आकाश; शब्दयो:—सारी ध्वनियों का ।.
 
अनुवाद
 
 उनके नेत्र सभी प्रकार के रूपों के उत्पत्ति-केन्द्र हैं। वे चमकते हैं तथा प्रकाशित करते हैं। उनकी पुतलियाँ (नेत्र-गोलक) सूर्य तथा दैवी नक्षत्रों की भाँति हैं। उनके कान सभी दिशाओं में सुनते हैं और समस्त वेदों को ग्रहण करनेवाले हैं। उनकी श्रवणेन्द्रिय आकाश तथा समस्त प्रकार की ध्वनियों की उद्गम है।
 
तात्पर्य
 कभी-कभी तीर्थानाम् शब्द की व्याख्या तीर्थस्थलों के रूप में की जाती है, किन्तु श्रील जीव गोस्वामी का कहना है कि यह वैदिक दिव्य ज्ञान के ग्रहण करने के लिए प्रयुक्त है। वैदिक ज्ञान के समर्थकों को तीर्थ कहा भी जाता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥