श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  2.6.30 
ततश्च मनव: काले ईजिरे ऋषयोऽपरे ।
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्या: क्रतुभिर्विभुम् ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
तत:—तत्पश्चात्; च—भी; मनव:—मानव जाति के पूर्वज, सारे मनु; काले—कालान्तर में; ईजिरे—पूजा की; ऋषय:— ऋषिगण; अपरे—अन्य; पितर:—पुरखे; विबुधा:—विद्वान पंडित; दैत्या:—देवताओं के महान् भक्त; मनुष्या:—मानव जाति; क्रतुभि: विभुम्—परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों के द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात्, मनुष्यों के पिताओं यानी मनुओं, महर्षियों, पितरों, विद्वान् पंडितों, दैत्यों तथा मनुष्यों ने परमेश्वर को प्रसन्न करने के निमित्त यज्ञ सम्पन्न किये।
 
तात्पर्य
 दैत्य देवताओं के भक्त होते हैं, क्योंकि वे उनसे अधिकाधिक भौतिक सुविधाएँ हासिल करना चाहते हैं। किन्तु भगवान् के भक्त एकनिष्ठ होते हैं, अर्थात् वे भगवान् की भक्तिमय सेवा में तल्लीन रहते हैं, अतएव उनके पास भौतिक सुविधाएँ माँगने के लिए थोड़ा-सा समय भी नहीं रहता। क्योंकि आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति होने के कारण वे भौतिक सुविधाओं की तुलना में आध्यात्मिक उत्थान की अधिक चिन्ता करते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥