नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम् ।
गृहीतमायोरुगुण: सर्गादावगुण: स्वत: ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
नारायणे—नारायण में; भगवति—भगवान्; तत् इदम्—ये समस्त भौतिक अभिव्यक्तियाँ; विश्वम्—सारे ब्रह्माण्ड; आहितम्— स्थित; गृहीत—स्वीकार; माया—भौतिक शक्तियाँ; उरु-गुण:—अत्यन्त शक्तिमान; सर्ग-आदौ—सृजन, पालन तथा संहार में; अगुण:—गुणों के प्रति किसी प्रकार की आसक्ति से रहित; स्वत:—स्वयमेव, आत्म-निर्भरतापूर्वक ।.
अनुवाद
अतएव सारे ब्रह्माण्डों की भौतिक अभिव्यक्तियाँ उनकी शक्तिशाली भौतिक शक्तियों में स्थित हैं, जिन्हें वे स्वत: स्वीकार करते हैं, यद्यपि वे भौतिक गुणों से नित्य निर्लिप्त रहते हैं।
तात्पर्य
इस तरह नारद ने ब्रह्माजी से भौतिक सृष्टि के विषय में जो प्रश्न पूछा था, उसका उत्तर मिल जाता है। भौतिक विज्ञानी जिस रूप में ऊपर से भौतिक क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं का अवलोकन कर सकता है वे वास्तव में सृजन, पालन तथा संहार के सम्बन्ध में अन्तिम सत्य नहीं होतीं। भौतिक शक्ति भगवान् की शक्ति है, जो यथासमय पर सतो, रजो तथा तमो गुणों को स्वीकार करते हुए विष्णु, ब्रह्मा तथा शिव के रूप में प्रदर्शित की जाती है। इस तरह भौतिक शक्ति भगवान् के पूर्ण नियन्त्रण में कार्य करती है, यद्यपि वे ऐसे भौतिक कार्यकलापों से सदा परे रहनेवाले हैं। कोई धनी व्यक्ति एक बड़े मकान का निर्माण अपने संसाधनों के रूप में अपनी शक्ति व्यय करके करता है। इसी प्रकार, वह अपने संसाधनों से ही एक बड़े मकान को विनष्ट भी कर देता है, किन्तु उसका रख-रखाव सदैव उसकी देखरेख में होता है। भगवान् धनियों में सबसे धनी हैं, क्योंकि वे छहों बड़े ऐश्वर्यों से सदा ओतप्रोत रहते हैं। अतएव उन्हें कुछ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन संसार की प्रत्येक घटना उनकी इच्छा तथा उनके निर्देश से स्वयं घटती है, अतएव सम्पूर्ण भौतिक अभिव्यक्ति भगवान् नारायण में स्थित है। परम सत्य विषयक निर्विशेष धारणा ज्ञान के अभाव के कारण है और इस तथ्य को ब्रह्माजी ने स्पष्ट बताया है, क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के कार्यकलापों के स्रष्टा हैं। ब्रह्माजी वैदिक वाङ्मय के सर्वोच्च अधिकारी (प्रमाण) हैं, अतएव इस विषय में उनका कथन परम सूचना के रूप में है।
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