उनकी इच्छा से मैं सृजन करता हूँ, शिवजी विनाश करते हैं और स्वयं वे अपने नित्य भगवान् रूप से सबों का पालन करते हैं। वे इन तीनों शक्तियों के शक्तिमान नियामक हैं।
तात्पर्य
यहाँ पर अद्वितीय की धारणा की स्पष्ट पुष्टि होती है। वे वासुदेव भगवान् ही हैं और उनकी विभिन्न शक्तियों एवं अंशों के द्वारा ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ—भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों में—पालित होती हैं। भौतिक जगत में भी भगवान् वासुदेव ही सब कुछ हैं जैसाकि भगवद्गीता (७.१९) में कहा गया है। वासुदेव: सर्वम् इति—सब कुछ वासुदेव ही हैं। वैदिक मंत्रों में भी इन्हीं वासुदेव को सर्वोच्च माना गया है। वेदों का कथन है—वासुदेवात् परो ब्रह्मन्न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वत:—वास्तव में वासुदेव से बढक़र कोई सत्य नहीं है। और भगवद्गीता (७.७) में भगवान् कृष्ण उसी सत्य की पुष्टि करते हैं—मत्त: परतरं नान्यत्—मुझसे (कृष्ण से) बढक़र अन्य कोई नहीं है। इस तरह एकात्म की धारणा, जिस पर निर्विशेषवादी अत्यधिक बल देता है, भगवान् के सगुणवादी भक्त द्वारा भी मान्य है। अन्तर इतना ही है कि निर्विशेषवादी पुरुष स्वरूप को नहीं मानता, जबकि भक्त भगवान् के पुरुष रूप को अधिक महत्त्व प्रदान करता है। श्रीमद्भागवत में यह सत्य इसी श्लोक में बताया गया है—भगवान् वासुदेव अद्वितीय हैं, किन्तु सर्व-शक्तिमान होने के कारण वे अपना विस्तार कर सकते हैं और अपनी शक्तियों का प्रदर्शन कर सकते हैं। यहाँ पर भगवान् को तीन शक्तियों द्वारा (त्रिशक्ति-धृक्) सर्वशक्तिमान बताया गया है। अत: उनकी तीन शक्तियाँ हैं—अन्तरंगा, तटस्था तथा बहिरंगा। इनमें से बहिरंगा शक्ति सतो, रजो तथा तमो, इन तीन गुणों द्वारा प्रदर्शित होती है। इसी प्रकार अन्तरंगा शक्ति भी तीन आध्यात्मिक गुणों द्वारा प्रदर्शित होती है। ये हैं—संवित्, संधिनी तथा ह्लादिनी। तटस्था शक्ति या जीव भी आध्यात्मिक है (प्रकृति विद्धि मे पराम्), लेकिन जीव कभी भगवान् के तुल्य नहीं होते। भगवान् निरस्त-साम्य-अतिशय हैं। दूसरे शब्दों में, न कोई भगवान् के तुल्य है, न उनसे बढक़र। अतएव, सारे जीव जिनमें ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे महापुरुष सम्मिलित हैं, सभी भगवान् के अधीन हैं। भौतिक जगत में भी भगवान् अपने विष्णु-रूप में ब्रह्मा तथा शिव समेत सारे देवताओं का पालन करते हैं तथा उनके सारे कार्यों का नियन्त्रण करते है।
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