श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  2.6.33 
इति तेऽभिहितं तात यथेदमनुपृच्छसि ।
नान्यद्भगवत: किंचिद्भाव्यं सदसदात्मकम् ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; ते—तुमको; अभिहितम्—बताया; तात—हे पुत्र; यथा—जिस प्रकार; इदम्—ये सब; अनुपृच्छसि—तुमने पूछा है; न—कभी नहीं; अन्यत्—अन्य कुछ; भगवत:—भगवान् से परे; किञ्चित्—कुछ भी; भाव्यम्—कभी सोचने योग्य; सत्—कारण; असत्—कार्य; आत्मकम्—के विषय मेंं ।.
 
अनुवाद
 
 प्रिय पुत्र, तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसको मैंने इस तरह तुम्हें बतला दिया। तुम यह निश्चय जानो कि जो कुछ भी यहाँ है (चाहे वह कारण हो या कार्य, दोनों ही—आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में) वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् पर आश्रित है।
 
तात्पर्य
 भगवान् की शक्तियों का प्राकट्य, चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक, पहले तो कारण रूप में कार्यशील होता है और गतिमान बनता है और फिर कार्य-रूप में सामने आता है। किन्तु मूल कारण तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। मूल कारण के कार्य (प्रभाव) ही अन्य कार्यों के कारण बनते है और इस तरह प्रत्येक वस्तु, चाहे वह स्थायी हो या अस्थायी, कारण-कार्य के रूप में कार्य करती है। और चूँकि भगवान् सभी पुरुषों तथा शक्तियों के आदि कारण हैं, अतएव वे समस्त कारणों के कारण कहलाते हैं जिसकी पुष्टि ब्रह्म-संहिता तथा भगवद्गीता दोनों में हुई है।

ब्रह्म-संहिता (५.१) पुष्टि करती है कि—

ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:।

अनादिराआदिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणम् ॥

तथा भगवद्गीता (१०.८) में भी कहा गया है—

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥

अतएव आदि कारण विग्रह साकार हैं और निर्विशेष आध्यात्मिक तेज, ब्रह्मज्योति, भी परब्रह्म भगवान् कृष्ण का प्रभाव है (ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्)।

 
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