श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  2.6.34 
न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते
न वै क्‍वचिन्मे मनसो मृषा गति: ।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे
यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरि: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; भारती—कथन; मे—मन; अङ्ग—हे नारद; मृषा—असत्य; उपलक्ष्यते—प्रमाणित होता है; न—कभी नहीं; वै— निश्चय ही; क्वचित्—कभी; मे—मेरा; मनस:—मन को; मृषा—असत्य; गति:—प्रगति; न—न तो; मे—मेरी; हृषीकाणि— इन्द्रियाँ; पतन्ति—पतित होती हैं; असत्-पथे—अस्थायी पदार्थ में; यत्—क्योंकि; मे—मेरे; हृदा—हृदय में; औत्कण्ठ्यवता— महान् उत्कण्ठा के द्वारा; धृत:—धारण किया; हरि:—भगवान् ।.
 
अनुवाद
 
 हे नारद, चूँकि मैंने भगवान् हरि के चरणकमलों को अत्यन्त उत्कण्ठा के साथ पकड़ रखा है, अतएव मैं जो कुछ कहता हूँ, वह कभी असत्य नहीं होता। न तो मेरे मन की प्रगति कभी अवरुद्ध होती है, न ही मेरी इन्द्रियाँ कभी भी पदार्थ की क्षणिक आसक्ति से पतित होती हैं।
 
तात्पर्य
 नारद को दी गई वैदिक विद्या के प्रथम वक्ता ब्रह्माजी हैं और नारद अपने विभिन्न शिष्यों सहित व्यासदेव तथा अन्यों के द्वारा इस दिव्य ज्ञान को पूरे विश्व में वितरित करनेवाले हैं। वैदिक ज्ञान के अनुयायी ब्रह्माजी के कथनों को अकाट्य सत्य मानते हैं। इस तरह यह दिव्य ज्ञान सारे संसार में सृष्टि के प्रारम्भ से अनादि काल से शिष्य-परम्परा द्वारा वितरित होता रहा है। ब्रह्माजी इस भौतिक जगत के पूर्ण मुक्त जीव हैं और अध्यात्मज्ञान के किसी भी निष्ठावान जिज्ञासु को ब्रह्माजी के वचनों को अच्युत मानना पड़ेगा। वैदिक ज्ञान अच्युत है, क्योंकि यह परमेश्वर से सीधे ब्रह्मा के हृदय में जाता है और चूँकि ब्रह्माजी सर्वोच्च पूर्ण जीव हैं, अतएव उनके कथन अक्षरश: सत्य होते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे भगवान् के परम भक्त हैं और उन्होंने भगवान् के चरणकमलों को परम सत्य के रूप में उत्कंठा पूर्वक स्वीकार किया है। वे अपने ही द्वारा संकलित ब्रह्म-संहिता में इस सूक्ति को दोहराते हैं—गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि—मैं आदि भगवान् गोविन्द का पूजक हूँ। अतएव वे जो कुछ कहते हैं, जो भी सोचते हैं और जो भी करते हैं, उसे सत्य मानकर ग्रहण करना चाहिए क्योंकि आदि भगवान् गोविन्द के साथ उनका प्रत्यक्ष एवं अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्रीगोविन्द, जो अपने भक्तों की प्रेममयी सेवा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं, अपने भक्तों के वचनों तथा कार्यों का प्रतिपालन करते हैं। भगवान् भगवद्गीता (९.३१) में कहते हैं—कौन्तेय प्रतिजानीहि—हे कुन्तीपुत्र! तुम यह घोषित कर दो। भगवान् अर्जुन से घोषणा करने को कहते हैं, तो क्यों? क्योंकि कभी-कभी साक्षात् गोविन्द की घोषणा संसारी जीवों को विरोधात्मक लग सकती है, किन्तु संसारी व्यक्ति कभी भी भगवद्भक्त के वचनों में कोई विरोधाभास नहीं पायेगा। भगवान् भक्तों की विशेष रूप से इसीलिए रक्षा करते हैं, जिससे वे अच्युत रहें। अतएव भक्तियोग उस भक्त की सेवा से प्रारम्भ होता है, जो शिष्य परम्परा में होता है। भक्तगण सदैव मुक्त हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वे निर्विशेष हैं। भगवान् शाश्वत पुरुष हैं और भगवद्भक्त भी शाश्वत पुरुष है। चूँकि मुक्त अवस्था में भी भक्त की इन्द्रियाँ रहती हैं, अतएव वह सदैव पुरुष रहता है। चूँकि भक्त की सेवा भगवान् द्वारा पूर्ण आदान प्रदान के रूप में स्वीकार की जाती है, अतएव भगवान् भी अपने पूर्ण आध्यात्मिक शरीर में पुरुष हैं। भक्त की इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में लगी रहने के कारण मिथ्या भौतिक भोग के आकर्षण द्वारा विपथ नहीं होतीं। भक्त की योजनाएँ कभी व्यर्थ नहीं जातीं। इसका कारण है भक्त की भगवान् की सेवा में श्रद्धापूर्ण आसक्ति। सिद्धि तथा मुक्ति का यही मानदण्ड है। ब्रह्माजी से लेकर मनुष्य तक सारे जीव तुरन्त ही मुक्ति के पथ पर अग्रसर होते हैं, यदि उनकी आसक्ति आदि भगवान् श्रीकृष्ण में अपार निष्ठा के साथ होती है। भगवान् भगवद्गीता (१४.२६) में इसकी पुष्टि करते हैं : मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।

स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥

अतएव, जो कोई हृदय तथा आत्मा से दिव्य प्रेमाभक्ति के माध्यम से भगवान् के घनिष्ठ सम्पर्क में आने का इच्छुक है, उसके वचन तथा कर्म सदैव अच्युत होंगे। इसका कारण यह है कि परमेश्वर परम सत्य हैं तथा जो भी वस्तु सच्ची निष्ठा से परम सत्य से जोड़ दी जाती है, वह उसी दिव्य गुण को प्राप्त कर लेती है। इसके विपरीत, भौतिक विज्ञान तथा ज्ञान पर आधारित कितना ही मानसिक चिन्तन क्यों न हो, वह परम सत्य के प्रामाणिक संसर्ग के बिना संसारी असत्य होने से असफल होता है, केवल इसलिए कि उसका संसर्ग परम सत्य के साथ नहीं होता। ऐसे ईश्वर-विहीन अश्रद्धापूर्ण वचन तथा कर्म भौतिक दृष्टि से कितने ही समृद्ध क्यों न हों विश्वास के योग्य नहीं होते। इस महत्त्वपूर्ण श्लोक का यही तात्पर्य है। भक्ति का एक कण भी अश्रद्धा के कई टन से अधिक मूल्यवान है।

 
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