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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  2.6.35 
सोऽहं समाम्नायमयस्तपोमय:
प्रजापतीनामभिवन्दित: पति: ।
आस्थाय योगं निपुणं समाहित-
स्तं नाध्यगच्छं यत आत्मसम्भव: ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
स: अहम्—मैं स्वयं (महान् ब्रह्मा); समाम्नाय-मय:—वैदिक ज्ञान की शिष्य-परम्परा की श्रेणी में; तप:-मय:—समस्त तपस्याओं से युक्त; प्रजापतीनाम्—जीवों के समस्त पुरखों का; अभिवन्दित:—पूज्य; पति:—स्वामी; आस्थाय—सफलतापूर्वक अभ्यास किया हुआ; योगम्—योगशक्ति; निपुणम्—अत्यन्त पटु; समाहित:—स्वरूप-सिद्ध; तम्—परमेश्वर को; —नहीं; अध्यगच्छम्—ठीक से समझा; यत:—जिससे; आत्म—स्वयं; सम्भव:—उत्पन्न ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि मैं वैदिक ज्ञान की शिष्य-परम्परा में दक्ष महान् ब्रह्मा के रूप में विख्यात हूँ और यद्यपि मैंने सारी तपस्याएँ की हैं तथा यद्यपि मैं योगशक्ति एवं आत्म-साक्षात्कार में पटु हूँ और मुझे सादर प्रणाम करनेवाले जीवों के महान् प्रजापति मुझे इसी रूप में मानते हैं, तो भी मैं उन भगवान् को नहीं समझ सकता, जो मेरे जन्म के मूल उद्गम हैं।
 
तात्पर्य
 इस ब्रह्माण्ड में समस्त जीवों में श्रेष्ठ ब्रह्माजी स्वीकार कर रहे हैं कि वे वैदिक ज्ञान में अपने पाण्डित्य, अपनी तपस्या, योगशक्ति तथा आत्म-साक्षात्कार के बावजूद एवं जीवों के पुरखों, महान् प्रजापतियों द्वारा पूजित होने पर भी, परमेश्वर को जान पाने में अक्षम हैं। अतएव परमेश्वर को जानने के लिए इतनी योग्यताएँ पर्याप्त नहीं हैं। ब्रह्माजी भगवान् को थोड़ा-थोड़ा तब समझ पाये जब वे अपने हृदय की उत्कण्ठा से (हृदौत्कण्ठ्यवता) उनकी सेवा करने का प्रयत्न कर रहे थे, जो भक्तियोग है। अतएव भगवान् को सेवा की निष्ठापूर्ण उत्कण्ठा द्वारा ही जाना जा सकता है, वैज्ञानिक या ज्ञानी होने या योगशक्ति की प्राप्ति की भौतिक योग्यता द्वारा नहीं। इस तथ्य की पुष्टि भगवद्गीता (१८.५४-५५) में स्पष्ट रूप से हुई है : ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥

वैदिक ज्ञान, तपस्या आदि उपर्युक्त उच्च योग्यताओं को प्राप्त करके भक्ति-मार्ग में केवल आत्म- साक्षात्कार सहायक बन सकता है। किन्तु भक्ति-मय सेवा के अभाव में मनुष्य अपूर्ण बना रहता है, क्योंकि उस आत्म-साक्षात्कार की स्थिति में भी वह परमेश्वर को ठीक से नहीं जान पाता। आत्म- साक्षात्कार द्वारा मनुष्य भक्त बनने का पात्र हो जाता है और भक्त सेवा-भाव से (भक्त्या) ही क्रमश: भगवान् को जान सकता है, किन्तु विशते (में प्रवेश करता है) का यह गलत आशय नहीं लेना चाहिए कि इससे परमेश्वर के अस्तित्व में लीन होने का निर्देश मिलता है। इस भौतिक जगत में भी मनुष्य भगवान् के अस्तित्व में लीन हो सकता है। कोई भी भौतिकतावादी आत्मा को पदार्थ से विलग नहीं कर सकता, जिस प्रकार कोई अबूझ व्यक्ति दूध से मक्खन विलग नहीं कर सकता, क्योंकि आत्मा भगवान् की बहिरंगा शक्ति में लीन रहता है। भक्ति से (भक्त्या) इस विशते का अर्थ है साक्षात् भगवान् का सान्निध्य करने में समर्थ होना। भक्ति का अर्थ है भवबन्धन से मुक्त होना और भगवान् की तरह बनकर उनके धाम में प्रवेश करना। भक्तियोग या भक्तों का लक्ष्य अपनी सत्ता खोना नहीं है। मुक्ति के पाँच प्रकार हैं, जिनमें सायुज्य भक्ति भगवान् के अस्तित्व या शरीर में लीन होना है। मुक्ति के अन्य प्रकारों में सूक्ष्म आत्मा की सत्ता बनी रहती है और वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगी रहती है। भगवद्गीता के श्लोक में विशते शब्द उन भक्तों के लिए आया है, जो किसी प्रकार की मुक्ति के लिए इच्छुक नहीं रहते। भक्तगण अपनी स्थिति की परवाह न करते हुए भगवान् की सेवा में संलग्न रहने मात्र से तुष्ट रहते हैं।

ब्रह्माजी प्रथम जीव हैं, जिन्होंने सीधे भगवान् से वैदिक ज्ञान सीखा (तेने ब्रह्म हृदा य आदि- कवये)। अत: ब्रह्माजी से बढक़र वेदान्ती कौन विद्वान हो सकता है? किन्तु वे स्वीकार करते हैं कि वेदों का पूर्ण ज्ञान होने पर भी वे भगवान् की महिमाओं को समझने में अक्षम हैं। चूँकि ब्रह्मा से बढक़र कोई नहीं हो सकता, अतएव तथाकथित वेदान्ती परम सत्य के विषय में कैसे जान सकते हैं? अतएव तथाकथित वेदान्ती भक्ति के साथ वेदांत (भक्तिवेदांत) में प्रशिक्षित हुए बिना भगवान् के अस्तित्व में प्रवेश नहीं कर सकते। वेदांत का अर्थ है आत्म-साक्षात्कार और भक्ति का अर्थ है कुछ हद तक भगवान् का साक्षात्कार। भगवान् को कोई भी पूर्णत: नहीं जान सकता लेकिन आत्म-समर्पण तथा भक्ति-भाव से उन्हें कुछ कुछ जाना जा सकता है, अन्य किसी भी विधि से नहीं। ब्रह्म-संहिता में भी कहा गया है—वेदेषु दुर्लभम् अर्थात् वेदान्त के अध्ययन से शायद ही भगवान् के अस्तित्व को जाना जा सके किन्तु भगवान् अदुर्लभम् आत्म-भक्तौ—अपने भक्तों के लिए सहज सुलभ हैं। अतएव श्रील व्यासदेव को वेदान्त सूत्र के संकलन से सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने इसके बाद अपने गुरु नारद के उपदेश से श्रीमद्भागवत का संकलन किया, जिससे वेदान्त के असली आशय को समझा जा सकता है।

 
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