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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  2.6.36 
नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां
भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम् ।
यो ह्यात्ममायाविभवं स्म पर्यगाद्
यथा नभ: स्वान्तमथापरे कुत: ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
नत:—नमस्कार करता हूँ; अस्मि—हूँ; अहम्—मैं; तत्—उस भगवान् के; चरणम्—चरणों पर; समीयुषाम्—शरणागत का; भवत्-छिदम्—जन्म-मरण के चक्र को रोकनेवाला; स्वस्ति-अयनम्—समस्त सुख की अनुभूति; सु-मङ्गलम्—शुभ कल्याणप्रद; य:—जो; हि—निश्चय ही; आत्म-माया—व्यक्तिगत शक्ति; विभवम्—शक्ति; स्म—निश्चय ही; पर्यगात्—अनुमान नहीं लगा सकता; यथा—जिस तरह; नभ:—आकाश; स्व-अन्तम्—अपनी सीमा; अथ—अतएव; अपरे—अन्य; कुत:—किस तरह ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव मेरे लिए श्रेयस्कर होगा कि मैं उनके चरणों में आत्म-समर्पण कर दूँ, क्योंकि केवल वे ही मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से उबार सकते हैं। ऐसा आत्म-समर्पण कल्याणप्रद है और इससे समस्त सुख की अनुभूति होती है। आकाश भी अपने विस्तार की सीमाओं का अनुमान नहीं लगा सकता। अतएव जब भगवान् ही अपनी सीमाओं का अनुमान लगाने में अक्षम रहते हैं, तो भला दूसरे क्या कर सकते हैं?
 
तात्पर्य
 जीवों में सर्वाधिक विद्वान, सर्वोच्च यज्ञकर्ता, सर्वोच्च तपस्वी तथा सर्वोच्च स्वरूपसिद्ध योगी ब्रह्माजी हमें समस्त जीवों के परम गुरु के रूप में उपदेश देते हैं कि सारी सफलता प्राप्त करने के लिए, यहाँ तक कि भौतिक जीवन के कष्टों से मुक्ति पाने तथा कल्याणमय आध्यात्मिक जीवन के लिए भी, हमें भगवान् के चरणकमलों में आत्म-समर्पण करना ही चाहिए। ब्रह्माजी पितामह कहलाते हैं, अर्थात् वे पिता के भी पिता हैं। एक नवयुवक अपना कर्तव्य पालन करने के लिए अपने अनुभवी पिता से सलाह लेता है, अतएव पिता श्रेष्ठ उपदेशक (सलाहकार) होता है। किन्तु ब्रह्मा सभी के पिताओं के पिता हैं। वे उस मनु के पिता के पिता हैं, जो सारे ब्रह्माण्डों के मनुष्यों के पिता हैं। अतएव इस क्षुद्र लोक के लोगों को ब्रह्मा का आदेश कृपापूर्वक मानना चाहिए और अच्छा यही होगा कि वे भगवान् की शक्तियों की नाप-जोख न करके, उनके चरणकमलों पर आत्म-समर्पण कर दें। उनकी शक्तियाँ असीम हैं, जैसी कि वेदों द्वारा पुष्टि होती है—परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.८)। वे सबों से बड़े हैं और अन्य लोग, यहाँ तक कि समस्त जीवों में श्रेष्ठ ब्रह्माजी भी, स्वीकार करते हैं कि हमारे लिए सर्वोत्तम यही होगा कि उनकी शरण ग्रहण की जाय। अतएव जो अल्पज्ञ हैं, वे ही अपने को सर्वेसर्वा होने का दावा करते हैं, लेकिन उनकी पहुँच कितनी है? वे एक छोटे से ब्रह्माण्ड के क्षुद्र आकाश की भी लम्बाई-चौड़ाई नहीं माप सकते। तथाकथित भौतिक विज्ञानी कहता है कि उसे ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च लोक तक पहुँचने में चालीस हजार वर्ष लगेंगे, यदि वह यह यात्रा अन्तरिक्ष-यान से करे। यह भी काल्पनिक आदर्श है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति चालीस हजार वर्ष तक जीवित नहीं रह सकता। इसके अतिरिक्त, जब अन्तरिक्ष-यात्री वापस लौटेगा तो जैसाकि आज के मोहग्रस्त विज्ञानियों में फैशन बन चुका है, सर्वश्रेष्ठ अन्तरिक्ष-यात्री के रूप में उसका स्वागत करने के लिए कोई नहीं होगा। एक विज्ञानी, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता था, अपने भौतिक जीवन की योजनाएँ बनाने के लिए अत्यन्त उत्सुक था, अतएव उसने जीवित व्यक्तियों को बचाने के लिए एक बहुत बड़ा अस्पताल खोला। किन्तु अस्पताल खोलने के छह मास के भीतर ही वह स्वयं मर गया। अतएव मनुष्य को चाहिए कि चौरासी लाख योनियों में शरीर के बारबार बदलने के बाद प्राप्त अपने उस मनुष्य जीवन को, आर्थिक उन्नति तथा वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के नाम पर कृत्रिम आवश्यकताएँ बढ़ाकर मनगढ़ंत भौतिक जीवन-सुख के हेतु व्यर्थ न गँवाये। प्रत्युत जीवन के समस्त दुखों को हल करने के लिए भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करे। भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण का यही आदेश है और श्रीमद्भागवत में समस्त जीवों के परम पिता ब्रह्माजी का भी यही आदेश है।

जो व्यक्ति भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत, इन दोनों द्वारा संस्तुत आत्म-समर्पण (शरणागति) की इस विधि से इनकार करता है और इस तरह वह समस्त वैध शास्त्रों को नकारता है, तो उसे प्रकृति के नियमों के समक्ष आत्म-समर्पण के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अपनी स्वाभाविक स्थिति के अनुसार जीव स्वतन्त्र नहीं है। उसे या तो भगवान् को या प्रकृति को आत्म-समर्पण करना पड़ेगा। प्रकृति भी भगवान् से स्वतन्त्र नहीं है, क्योंकि स्वयं भगवान् ने प्रकृति को मम माया अर्थात् मेरी माया (भगवद्गीता ७.१४ में) तथा मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा (भगवद्गीता ७.४) अर्थात् आठ विभागों वाली मेरी भिन्ना शक्ति कहकर सम्बोधित किया है। अतएव प्रकृति भी भगवान् के वश में है, जैसाकि उन्होंने (भगवद्गीता ९.१०) दावा किया है—मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयतेसचराचरम्—मेरी अध्यक्षता में, यह प्रकृति कार्य करती है और इस तरह सारी वस्तुएँ गतिशील हैं। जीव पदार्थ की तुलना में श्रेष्ठ (परा) शक्ति होने के कारण, चाहे तो भगवान् को आत्म-समर्पण करे, चाहे प्रकृति को। भगवान् को आत्म- समर्पण करने पर मनुष्य सुखी तथा मुक्त बन जाता है, किन्तु प्रकृति को आत्म-समर्पण करने पर जीव दुख ही दुख उठाता है। अतएव समस्त दुखों के अन्त का अर्थ है भगवान् को आत्म-समर्पण करना, क्योंकि यह आत्म-समर्पण की प्रक्रिया स्वयं ही भवच्छिदम् (समस्त भौतिक कष्टों से मुक्ति), स्वस्त्ययनम् (समस्त सुख की अनुभूति) तथा सुमङ्गलम् (समस्त कल्याण का स्रोत) है।

अतएव भगवान् को आत्म-समर्पण करके ही स्वतन्त्रता, सुख तथा सौभाग्य की प्राप्ति की जा सकती है, क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्रता, पूर्ण सुख-मय तथा पूर्ण कल्याण-मय हैं। ऐसी मुक्ति तथा सुख असीम भी होते हैं और इनकी तुलना आकाश से की गई है, यद्यपि वे आकाश से भी बढक़र हैं। हम अपनी वर्तमान स्थिति में इस विशालता को आकाश की तुलना द्वारा समझ जाते हैं। हम आकाश को मापने में असमर्थ हैं, किन्तु भगवान् के सान्निध्य से जो सुख तथा मुक्ति प्राप्त होती है, वह आकाश की तुलना में वृहत्तर है। यह आध्यात्मिक सुख इतना विशाल है कि स्वयं भगवान् भी इसे नहीं माप पाते, अन्यों की तो कोई बात ही नहीं है।

शास्त्रों में कहा गया है—ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्—आध्यात्मिक आनन्द असीम है। यहाँ पर कहा गया है कि भगवान् भी ऐसे सुख को नहीं माप पाते। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि चूँकि भगवान् इसे माप नहीं सकते, अतएव वे इस दिशा में अपूर्ण हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि भगवान् इसे माप सकते हैं, लेकिन भगवान् में जो सुख है, वह परम ज्ञान के कारण भगवान् से अभिन्न भी है। अतएव भगवान् से प्राप्त होनेवाला सुख भगवान् द्वारा मापा जा सकता है, लेकिन यह सुख पुन: बढ़ जाता है और जब भगवान् इसे दुबारा मापते हैं, तो यह सुख और बढ़ता जाता है। इस प्रकार वृद्धि तथा माप में लगातार स्पर्धा चलती है, यहाँ तक कि यह कभी रुकती नहीं और अनन्त रूप से चलती रहती है। आध्यात्मिक सुख आनन्दाम्बुधि-वर्धनम् है, अर्थात् सुख का सागर है, जो बढ़ता जाता है। भौतिक समुद्र तो रुका हुआ रहता है, लेकिन आध्यात्मिक समुद्र गतिशील है। कविराज गोस्वामी ने चैतन्य- चरितामृत (आदि-लीला, चतुर्थ अध्याय) में भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति, श्रीमती राधारानी, के दिव्य शरीर में इस आध्यात्मिक सुख के सिन्धु की गतिशील वृद्धि का सुन्दर वर्णन किया है।

 
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