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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  2.6.37 
नाहं न यूयं यद‍ृतां गतिं विदु-
र्न वामदेव: किमुतापरे सुरा: ।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं
विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
—न तो; अहम्—मैं; —न तो; यूयम्—तुम सब मेरे पुत्र; यत्—जिसका; ऋताम्—वास्तविक; गतिम्—गति; विदु:— जानते हैं; —न तो; वामदेव:—शिवजी; किम्—क्या; उत—और कुछ; अपरे—अन्य; सुरा:—देवता; तत्—उसकी; मायया—माया से; मोहित—मुग्ध; बुद्धय:—ऐसी बुद्धि से; तु—लेकिन; इदम्—यह; विनिर्मितम्—जो उत्पन्न किया जाता है; —भी; आत्म-समम्—अपनी शक्ति के बल पर; विचक्ष्महे—देखते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 जब न शिवजी, न तुम और न मैं ही आध्यात्मिक आनन्द की सीमाएँ तय कर सके हैं, तो अन्य देवता इसे कैसे जान सकते हैं? चूँकि हम सभी भगवान् की माया से मोहित हैं, अतएव हम अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही इस व्यक्त विश्व को देख सकते हैं।
 
तात्पर्य
 हमने अनेक बार बारह चुने हुए प्रामाणिक पुरुषों (द्वादश महाजन) के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें ब्रह्मा, नारद तथा शिवजी के नाम उस सूची में क्रमानुसार प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्थान पर आते हैं, जो परमेश्वर के विषय में काफी-कुछ जानते हैं। अन्य देवता, उपदेवता, गन्धर्व, चारण, विद्याधर, मनुष्य या असुर सम्भवत: भगवान् श्रीकृष्ण की शक्तियों के विषय में पूरी तरह कभी नहीं जान सकते। इनमें से देवता, उपदेवता, गन्धर्व आदि उच्चतर लोकों के उच्च कोटि के बुद्धिमान व्यक्ति हैं, मनुष्य मध्य लोक के वासी हैं और असुर अधोलोकों के वासी हैं। इनमें से सबों की परम सत्य-विषयक अपनी-अपनी अवधारणाएँ हैं, जिस प्रकार कि मानव समाज में विज्ञानी या ज्ञानमार्गी दार्शनिकों की होती हैं। ये सारे जीव भौतिक प्रकृति के प्राणी हैं, अत: ये सब प्रकृति के तीन गुणों के चमत्कारिक प्रदर्शन से मोहित होते रहते हैं। ऐसे मोह का उल्लेख भगवद्गीता (७.१३) में हुआ है— त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्—प्रत्येक जीव, ब्रह्मा से लेकर चींटी तक प्रकृति के गुणों—सतो, रजो तथा तमो—के द्वारा अपनी-अपनी तरह से मोहित है। हर कोई अपनी व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार सोचता है कि हमारे समक्ष व्यक्त यह ब्रह्माण्ड ही सब कुछ है। इसी तरह बीसवीं सदी के मानव समाज का विज्ञानी ब्रह्माण्ड के इति-अथ की गणना अपने ढंग से करता है। लेकिन ऐसे विज्ञानी क्या जान सकेंगे? एक बार ब्रह्मा भी अपने आपको भगवान् का एकमात्र कृपा-पात्र ब्रह्मा मानकर मोहग्रस्त हुए थे, लेकिन बाद में भगवत्कृपा से उन्हें ज्ञात हो सका कि ऐसे असंख्य अधिक शक्तिशाली ब्रह्मा हैं, जो इससे भी बड़े ब्रह्माण्डों में रहते हैं और ये सारे ब्रह्माण्ड मिलकर एकपाद विभूति या भगवान् की सृजनात्मक शक्ति का एक चतुर्थांश बनते हैं। उनकी शक्ति का शेष तीन चौथाई अंश आध्यात्मिक जगत में प्रदर्शित होता है, अतएव छोटे से मस्तिष्क वाला एक क्षुद्र विज्ञानी भगवान् श्रीकृष्ण के विषय में क्या जान पायेगा? अतएव भगवान् कहते हैं मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्—प्रकृति के गुणों से मोहित होने के कारण वे यह नहीं समझ पाते कि इन अभिव्यक्तियों के परे एक ऐसा परम पुरुष है, जो सबों का परम नियंता है। चूँकि ब्रह्मा, नारद तथा शिव भगवान् के विषय में काफी जानते हैं, अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह इन महापुरुषों के उपदेशों का अनुगमन करे, न कि क्षुद्र मस्तिष्क के खिलवाड़पूर्ण अनुसन्धानों से—यथा अन्तरिक्ष यान तथा विज्ञान की अन्य वस्तुओं—से सन्तुष्ट हो। जिस प्रकार माता ही बालक के पिता की पहचान करने में एकमात्र प्रमाण-स्वरूप है, उसी प्रकार ब्रह्मा, नारद या शिव जैसे मान्य अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत वेदरूपी माता परम सत्य के विषय में सूचित करने की एकमात्र अधिकारिणी है।
 
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