विशुद्धम्—भौतिक कल्मष के बिना; केवलम्—शुद्ध तथा पूर्ण; ज्ञानम्—ज्ञान; प्रत्यक्—सर्वव्यापी; सम्यक्—पूर्ण रूप से; अवस्थितम्—स्थित; सत्यम्—सत्य; पूर्णम्—पूर्ण; अनादि—जिसका आदि न हो; अन्तम्—जिसका अन्त न हो; निर्गुणम्— गुणों से रहित; नित्यम्—शाश्वत; अद्वयम्—अद्वितीय; ऋषे—हे ऋषि नारद; विदन्ति—समझ सकते हैं; मुनय:—बड़े-बड़े विचारक; प्रशान्त—शान्त-चित्त; आत्म—स्वयं; इन्द्रिय—इन्द्रियाँ; आशया:—शरणागत; यदा—जब; तत्—वह; एव—निश्चय ही; असत्—न लागू होनेवाला; तर्कै:—तर्कों द्वारा; तिर:-धीयेत—विलुप्त हो जाता है; विप्लुतम्—विकृत ।.
अनुवाद
भगवान् पवित्र हैं और भौतिक क्लेश के समस्त कल्मष से रहित हैं। वे परम सत्य हैं और साक्षात् पूर्ण ज्ञान हैं। वे सर्वव्यापी, अनादि, अनन्त तथा अद्वय हैं। हे नारद, हे ऋषि, बड़े-बड़े मुनि उन्हें तभी जान सकते हैं, जब वे समस्त भौतिक लालसाओं से मुक्त हो जाते हैं और अविचलित इन्द्रियों की शरण ग्रहण कर लेते हैं। अन्यथा व्यर्थ के तर्कों से सब कुछ विकृत हो जाता है और भगवान् हमारी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं।
तात्पर्य
यहाँ पर क्षणिक भौतिक सृष्टियों में भगवान् के दिव्य कार्यकलापों के अतिरिक्त भगवान् का मूल्यांकन किया गया है। मायावादी दर्शन भगवान् को, जब वे अवतरित होते हैं, भौतिक शरीर से कलुषित हुआ बताता है। यहाँ पर भगवान् की स्थिति को सभी परिस्थितियों में शुद्ध तथा विशुद्ध कहकर इस प्रकार की व्याख्या को पूर्णतया अस्वीकार किया गया है। मायावाद दर्शन के अनुसार, अज्ञान से आच्छादित आत्मा को जीव की संज्ञा प्रदान की जाती है, किन्तु जब वह इस अज्ञान या अविद्या से मुक्त हो जाता है, तो परम सत्य के निर्विशेष स्वरूप में लीन हो जाता है। किन्तु यहाँ पर यह कहा गया है कि भगवान् पूर्णज्ञान के शाश्वत प्रतीक हैं। यह तो उनकी विशिष्टता है कि वे समस्त भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप से मुक्त हैं। यह विशेषता सामान्य जीवों से भगवान् को पृथक् करती है, क्योंकि जीवों में अज्ञान के वशीभूत होने की प्रवृत्ति पाई जाती है और इस तरह वे भौतिक उपाधियाँ ग्रहण करते हैं। वेदों में कहा गया है कि भगवान् विज्ञानम् आनन्दम् हैं अर्थात् ज्ञान तथा आनन्द से पूर्ण हैं। बद्धजीवों की तुलना उनसे नहीं की जा सकती, क्योंकि जीवों में कल्मष-ग्रस्त होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यद्यपि मुक्ति के बाद जीव भी भगवान् जैसा गुण ग्रहण कर सकता है, किन्तु कल्मषग्रस्त होने की प्रवृत्ति के कारण ही जो प्रवृत्ति भगवान् में नहीं होती जीव भगवान् से भिन्न है। वेदों में कहा गया है: शुद्धम् अपापविद्धम्—जीवात्मा पाप से दूषित हो जाता है, लेकिन भगवान् पापों से कभी दूषित नहीं होते। भगवान् की उपमा शक्तिशाली सूर्य से दी गई है। सूर्य शक्तिमान होने कारण किसी प्रकार संक्रमणसे-ग्रस्त नहीं होता। इसके विपरीत, सूर्य की किरणों से संदूषित वस्तुएँ विसंक्रमित हो जाती हैं। इसी तरह भगवान् पापों से कल्मषग्रस्त नहीं होते, अपितु पापी जीव उनके संसर्ग में आकर पवित्र हो जाते हैं। इसका अर्थ हुआ कि भगवान् भी सूर्य के समान सर्वव्यापी हैं। फलस्वरूप इस श्लोक में प्रत्यक् शब्द व्यवहृत हुआ है। भगवान् की शक्ति के विस्तारों में किसी वस्तु को बहिष्कृत नहीं किया जा सकता। भगवान् सबके भीतर हैं और व्यक्तिगत जीव के कार्यकलापों से प्रभावित हुए बिना वे सबको आच्छादित करनेवाले हैं। अतएव वे असीम हैं और जीव अतिसूक्ष्म हैं। वेदों में कहा गया है कि अकेले भगवान् का ही अस्तित्व है और अन्य सबका अस्तित्व उन पर निर्भर है। वे हर एक की अस्तित्व-क्षमता के जनन-आगार हैं, वे समस्त निरपेक्ष सत्यों के परम सत्य हैं। वे प्रत्येक जीव के ऐश्वर्य के स्रोत हैं, अतएव ऐश्वर्य में कोई उनकी समता नहीं कर सकता। समस्त ऐश्वर्यों—धन, यश, बल, सौन्दर्य, ज्ञान तथा त्याग—से पूर्ण होने के कारण निश्चित ही वे परम पुरुष हैं। चूँकि वे पुरुष हैं, अतएव उनमें अनेक व्यक्तिगत गुण हैं, भले ही वे भौतिक गुणों से परे होते हैं। हम पहले ही इत्थं भूत्गुणो हरि: (भागवत १.७.१०) इस कथन की व्याख्या कर चुके हैं। उनके दिव्य गुण इतने आकर्षक हैं कि आत्माराम तक उनसे आकृष्ट होते हैं। यद्यपि वे समस्त निजी गुणों से युक्त हैं, तो भी वे सर्वशक्तिमान हैं। अतएव उन्हें कुछ करना नहीं पड़ता, क्योंकि उनकी सर्वशक्तिसम्पन्न शक्तियों से सब कुछ सम्पन्न हो जाता है। इसकी भी पुष्टि वैदिक मन्त्र द्वारा हुई है—परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। इससे भगवान् के विशिष्ट आध्यात्मिक रूप का संकेत मिलता है, जो भौतिक इन्द्रियों द्वारा कभी अनुभूत नहीं होता। उनका दर्शन तभी किया जा सकता है, जब इन्द्रियाँ भक्तिमय सेवा द्वारा शुद्ध हो जाती हैं (यमेवैष वृणुते तेन लभ्य:)। इस तरह भगवान् तथा जीवों में कई बातों में अन्तर है। किसी की तुलना भगवान् से नहीं की जा सकती, जैसाकि वेदों की घोषणा है (एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, द्वैताद्वै भयं भवति)। भगवान् का कोई प्रतियोगी नहीं है, अतएव उन्हें किसी से न तो भय है, न कोई उनके समान हो सकता है। यद्यपि वे समस्त जीवों के मूल कारण हैं, किन्तु उनमें तथा अन्य जीवों में मूलभूत अन्तर है। अन्यथा पिछले श्लोक में यह कहने की आवश्यकता न होती कि कोई उन्हें शत-प्रतिशत यथार्थ रूप में नहीं जान सकता (न यं विदन्ति तत्त्वेन)। इस श्लोक में यह भी बताया गया है कि उन्हें कोई भी पूर्ण रूप से नहीं जान सकता, लेकिन कुछ हद तक उन्हें समझ पाने के लिए योग्यताओं का उल्लेख किया गया है। केवल प्रशान्त अर्थात् भगवान् के विशुद्ध भक्त ही उन्हें काफी हद तक जान पाने में समर्थ हो पाते हैं। इसका कारण यह है कि भक्तों को किसी वस्तु की कामना नहीं होती। वे तो उनके आज्ञाकारी दास बने रहना चाहते हैं, लेकिन अन्य लोगों को—ज्ञानमार्गी दर्शनिक, योगी तथा सकाम-कर्मी—कुछ न कुछ माँग रहती है, अतएव वे प्रशान्त नहीं हो सकते।
सकाम-कर्मी अपने कर्म का पुरस्कार चाहते हैं, योगी जीवन की कोई सिद्धि चाहते हैं और ज्ञानमार्गी दार्शनिक भगवान् के अस्तित्व में लीन होना चाहते हैं। किन्तु जब तक इन्द्रियतृप्ति की माँग बनी रहती है, तब तक प्रशान्त होने का अवसर नहीं आ पाता। इसके विपरीत, अनावश्यक शुष्क तर्कों से सारा मामला बिगड़ जाता है और इस तरह भगवान् हमारी समझ से और भी दूर होते जाते हैं। किन्तु शुष्क चिन्तक तपस्या के सिद्धान्तों का पालन करते रहने से भगवान् के निर्विशेष स्वरूप को कुछ हद तक जान सकते हैं, फिर भी वे उनके परम गोविन्द स्वरूप को नहीं समझ सकते, क्योंकि जो पूर्ण रूप से निष्पाप हैं या अमलात्मन हैं, वे ही भगवान् की शुद्ध भक्ति को अंगीकार करते हैं, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.२८) में हुई है : येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रता: ॥
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