श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 43-45
 
 
श्लोक  2.6.43-45 
अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा
दक्षादयो ये भवदादयश्च ।
स्वर्लोकपाला: खगलोकपाला
नृलोकपालास्तललोकपाला: ॥ ४३ ॥
गन्धर्वविद्याधरचारणेशा
ये यक्षरक्षोरगनागनाथा: ।
ये वा ऋषीणामृषभा: पितृणां
दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेन्द्रा: ।
अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत-
कूष्माण्डयादोमृगपक्ष्यधीशा: ॥ ४४ ॥
यत्किंच लोके भगवन्महस्व-
दोज:सहस्वद् बलवत् क्षमावत् ।
श्रीह्रीविभूत्यात्मवदद्भुतार्णं
तत्त्वं परं रूपवदस्वरूपम् ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
अहम्—मैं (ब्रह्मा); भव:—शिवजी; यज्ञ:—भगवान् विष्णु; इमे—ये सब; प्रजा-ईशा:—जीवों के पिता; दक्ष-आदय:—दक्ष, मरीचि, मनु, आदि.; ये—जो; भवत्—आप; आदय: च—तथा कुमारगण (सनत्कुमार तथा उनके भाई); स्वर्लोक-पाला:— स्वर्ग लोक के नायक; खगलोक-पाला:—अन्तरिक्ष यात्रियों के नायक; नृलोक-पाला:—मनुष्यों के नेता; तललोक-पाला:— निम्नलोकों के नायक; गन्धर्व—गन्धर्वलोक-वासी; विद्याधर—विद्याधर लोक के वासी; चारण-ईशा:—चारणों के नेता; ये— तथा अन्य; यक्ष—यक्षों के नेता; रक्ष—राक्षस; उरग—सर्प; नाग-नाथा:—नागलोक (पृथ्वी के नीचे) के नायक; ये—अन्य; वा—भी; ऋषीणाम्—ऋषियों के; ऋषभा:—प्रमुख; पितृणाम्—पितरों के; दैत्य-इन्द्र—नास्तिकों के नायक; सिद्ध-ईश्वर— सिद्धलोक के नायक (अन्तरिक्ष पुरुष); दानव-इन्द्रा:—अनार्यों के नायक; अन्ये—उनके अतिरिक्त; च—भी; ये—जो; प्रेत— मृतक; पिशाच—दुष्टात्माएँ; भूत—जिन्न; कूष्माण्ड—विशेष प्रकार का पिशाच; याद:—जलचर; मृग—पशु; पक्षि- अधीशा:—विशाल चील्ह; यत्—कुछ भी; किम् च—तथा प्रत्येक वस्तु; लोके—संसार में; भगवत्—भगयुक्त या अद्वितीय शक्तिसम्पन्न; महस्वत्—विशेष मात्रा का; ओज:-सहस्वत्—विशिष्ट मानसिक तथा ऐंद्रिय कौशल; बलवत्—बल से सम्पन्न; क्षमावत्—क्षमा से युक्त; श्री—सौन्दर्य; ह्री—पाप कृत्य से लज्जित; विभूति—धन; आत्मवत्—बुद्धि-सम्पन्न; अद्भुत— आश्चर्यजनक; अर्णम्—जाति; तत्त्वम्—विशिष्ट सत्य; परम्—दिव्य; रूपवत्—रूपवाला; अस्व-रूपम्—भगवत्स्वरूप का नहीं ।.
 
अनुवाद
 
 मैं स्वयं (ब्रह्मा), शिवजी, भगवान् विष्णु, दक्ष आदि प्रजापति, तुम (नारद तथा कुमारगण), इन्द्र तथा चन्द्र जैसे देवता, भूर्लोक के नायक, भूलोक के नायक, अधोलोक के नायक, गन्धर्वलोक के नायक, विद्याधरलोक के नायक, चारणलोक के नायक, यक्षों, राक्षसों तथा उरगों के नेता, ऋषि, बड़े-बड़े दैत्य, बड़े-बड़े नास्तिक तथा अन्तरिक्ष पुरुष तथा मृतक, प्रेत, शैतान, जिन्न, कूष्माण्ड, बड़े-बड़े जलचर, बड़े-बड़े पशु तथा पक्षी आदि या अन्य शब्दों में ऐसी कोई भी वस्तु जो बल, ऐश्वर्य, मानसिक तथा ऐन्द्रिय कौशल, शक्ति, क्षमा, सौन्दर्य, विनम्रता, ऐश्वर्य तथा प्रजनन से युक्त हो, चाहे रूपवान या रूप-विहीन, वे सब भले ही विशिष्ट सत्य तथा भगवान् के रूप प्रतीत हों, लेकिन वास्तव में वे वैसे हैं नहीं। वे सभी भगवान् की दिव्य शक्ति के अंशमात्र हैं।
 
तात्पर्य
 ऊपर की सूची में जिनके नाम हैं, उनमें ब्रह्माण्ड के प्रथम प्राणी ब्रह्माजी से लेकर शिवजी, विष्णु, नारद तथा अन्य शक्तिशाली देवता, मनुष्य, अतिमानव, मुनि, ऋषि तथा अद्वितीय शक्ति एवं ऐश्वर्यवाले निम्न प्राणी जिसमें भूत, शैतान, प्रेत, जिन्न, जलचर, पक्षी तथा पशु सम्मिलित हैं, ये सब परमेश्वर प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में इनमें से एक भी परमेश्वर नहीं है। इनमें से हर एक में परमेश्वर की महान् शक्ति का एक अंश ही रहता है। अल्पज्ञ मनुष्य भौतिक घटनाओं के आश्चर्यजनक कार्यों को देखकर उसी तरह विस्मित रह जाते हैं, जिस प्रकार आदिवासी वज्रपात, विशाल वटवृक्ष या जंगल में उत्तुंग पर्वत देखकर विस्मित होते हैं। ऐसे अविकसित मानवों के लिए भगवान् की शक्ति का रंचमात्र प्रदर्शन भी मोहनेवाला है। इससे आगे सभ्य मनुष्य देवी-देवताओं की शक्ति से मोहित होते हैं। अतएव जो लोग भगवान् के विषय में कोई वास्तविक सूचना के बिना भगवान् की सृष्टि की किसी भी वस्तु की शक्ति से चकित होते हैं, वे शाक्त या महान् शक्तियों के पूजक कहलाते हैं। आधुनिक विज्ञानी भी प्राकृतिक घटनाओं की आश्चर्यजनक क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं से मोहित हो जाते हैं, अतएव वे भी शाक्त हैं। ये निम्नकोटि के व्यक्ति, धीरे-धीरे उठकर, सौरीय (सूर्य देवता के उपासक) या गाणपत्य (गणपति के रूप में जनताजनार्दन या दरिद्र नारायण—अर्थात् जनता के पूजक) बन जाते हैं और फिर अमर आत्मा की खोज में शिवजी की उपासना करने वालों के स्तर तक उठ जाते हैं; फिर वे भगवान् विष्णु, परमात्मा आदि की पूजा करने वालों के स्तर तक पहुँच जाते हैं, किन्तु उन्हें आदि भगवान् विष्णु-रूप गोविन्द या कृष्ण की कोई जानकारी नहीं होती। अन्य विधियों में, कुछ लोग जाति, राष्ट्रीयता, पक्षी, पशु, प्रेत, शैतान आदि के पूजक होते हैं। जनता में, कष्टों के स्वामी शनिदेव तथा चेचक की देवी शीतलादेवी की पूजा सामान्य है और ऐसे अनेक मूर्ख हैं, जो जनता के दरिद्रों की पूजा करते हैं। अतएव विभिन्न व्यक्ति, समाज तथा परिवार भगवान् की किसी न किसी शक्तिमयी अभिव्यक्ति की पूजा करते हैं और उसे त्रुटिवश ईश्वर समझ लेते हैं। लेकिन इस श्लोक में ब्रह्माजी ने उपदेश दिया है कि इनमें से कोई भी परमेश्वर नहीं हैं; वे आदि शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण के मूल-मोरपंख से उधार लिए हुए पंख जैसे हैं। जब भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण केवल अपनी पूजा करने का उपदेश देते हैं, तो यह समझना चाहिए कि भगवान् कृष्ण की पूजा में उपर्युक्त सब या सभी की पूजा सम्मिलित है, क्योंकि भगवान् कृष्ण में सभी सम्मिलित हैं।

जब वैदिक साहित्य में भगवान् को रूपविहीन बताया जाता है, तो यह समझना चाहिए कि ऊपर जितने रूप बताये गये हैं, वे सब विश्वज्ञान के अनुभव के अन्तर्गत भगवान् की दिव्य शक्तियों के ही विभिन्न प्रदर्शन हैं; इनमें से कोई भी भगवान् के दिव्य रूप का यथार्थ प्रतिनिधित्व नहीं करता। किन्तु जब भगवान् पृथ्वी पर या ब्रह्माण्ड के भीतर कहीं भी अवतरित होते हैं, तो अल्पज्ञानी लोग उन्हें भी अपने-जैसा समझने की भूल करते हैं और इस तरह वे ब्रह्म को रूपविहीन या निर्विशेष मानते हैं। वास्तव में, भगवान् न तो रूपविहीन हैं, न ही वे विराट रूपों के भीतर अनुभव किये जानेवाले बहुरूपों में से किसी से सम्बद्ध होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि ब्रह्माजी के उपदेश का पालन करते हुए भगवान् विषयक सत्य को जानने का प्रयास करे।

 
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