रोमाण्युद्भिज्जजातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृत: ।
केशश्मश्रुनखान्यस्य शिलालोहाभ्रविद्युताम् ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
रोमाणि—देह के रोम; उद्भिज्ज—वनस्पति; जातीनाम्—जातियों का; यै:—जिसके द्वारा; वा—या; यज्ञ:—यज्ञ; तु—लेकिन; सम्भृत:—विशेष रूप से सेवित; केश—बाल; श्मश्रु—मूछें; नखानि—नाखून; अस्य—उसका; शिला—पत्थर; लोह—लौह अयस्कों; अभ्र—बादल; विद्युताम्—बिजली ।.
अनुवाद
उनके शरीर के रोम समस्त प्रकार की वनस्पति के कारण हैं, विशेष रूप से उन वृक्षों के, जो यज्ञ की सामग्री (अवयव) के रूप में काम आते हैं। उनके सिर तथा मुख के बाल बादलों के आगार हैं और उनके नाखून बिजली, पत्थरों तथा लौह अयस्कों के उद्गम-स्थल हैं।
तात्पर्य
भगवान् के चमकदार नाखून बिजली उत्पन्न करते हैं और सारे बादल उनके सिर के बालों पर टिके रहते हैं। अतएव भगवान् के शरीर से जीवन की सभी प्रकार की आवश्यक वस्तुएँ एकत्र की जा सकती हैं। इसीलिए वेद इसकी पुष्टि करते हैं कि भगवान् समस्त उत्पन्न वस्तुओं के कारण हैं। भगवान् समस्त कारणों के परम कारण हैं।
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