श्रीमद्भागवत के इस महत्त्वपूर्ण श्लोक की भगवद्गीता (१०.४१-४२) में निम्नलिखित प्रकार से पुष्टि और व्याख्या हुई है— यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तद् तद् एवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशंसम्भवम् ॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहम् इदं कृत्स्नम् एकांशेन स्थितो जगत् ॥
तमाम शक्तिशाली राजा, नेता, वैज्ञानिक, कलाकार, शिल्पी, अन्वेषक, पुरातत्त्वविद्, उद्योगपति, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, श्रेष्ठ व्यापारी तथा अनेक शक्तिशाली देव यथा ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण तथा मरुत जैसे देवता, जो अपने-अपने पदों पर विश्व के कार्यों की देख-रेख कर रहे हैं, सभी परमेश्वर के विभिन्न शक्तिशाली अंश हैं। परमेश्वर श्रीकृष्ण उन समस्त जीवों के पिता हैं, जो अपनी- अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न उच्च तथा निम्न पदों पर आसीन हैं। उनमें से कुछ, जैसाकि विशेष रूप से ऊपर कहा जा चुका है, भगवान् की इच्छानुसार विशिष्ट शक्ति से सम्पन्न हैं। बुद्धिमान मनुष्य को यह निश्चित रूप से समझ लेना होगा कि जीव, चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, न तो पूर्ण होता है, न स्वतन्त्र। सारे प्राणियों को इस श्लोक में लिखे अनुसार अपनी विशिष्ट शक्ति का मूल उद्गम स्वीकार करना चाहिए। यदि वे इसके अनुसार कर्म करते हैं, तो वे अपने-अपने वृत्तिपरक कर्मों को करने मात्र से जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं और यह सिद्धि है शाश्वत जीवन, पूर्ण ज्ञान तथा अक्षय आशीष। जब तक विश्व के शक्तिशाली व्यक्ति अपनी-अपनी शक्तियों के उद्गम को अर्थात् भगवान् को स्वीकार नहीं करते, तब तक माया के सारे कार्यकलाप चलते रहेंगे। माया के कार्य ऐसे होते हैं कि शक्तिशाली व्यक्ति भ्रामक भौतिक शक्ति द्वारा दिग्भ्रमित होकर अपने को इस विश्व में सर्वेसर्वा मान बैठता है और ईश-चेतना का विकास नहीं कर पाता। फलस्वरूप संसार में मिथ्या अहंकार-भाव मैं (तथा मेरा) का प्राधान्य हो गया है और अस्तित्व के लिए मानव समाज में कठिन जीवन-स्पर्धा चल रही है। अतएव बुद्धिमान वर्ग के लोगों को चाहिए कि भगवान् को समस्त शक्तियों का चरम स्रोत स्वीकार करें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उनको सम्मान प्रदर्शित करें। भगवान् को प्रत्येक वस्तु का परम स्वामी स्वीकार कर लेने से, मनुष्य को जीवन की सर्वोच्च सिद्धि मिल सकती है क्योंकि वे वास्तव में ऐसे हैं। समाज की दृष्टि में मनुष्य का चाहे जो भी स्थान हो, किन्तु यदि वह भगवान् से प्रेम भाव का आदान-प्रदान करने का प्रयत्न करता है और भगवान् के आशीर्वादों से तुष्ट रहता है, तो उसे सर्वाधिक मानसिक शान्ति का अनुभव होता है, जिसके लिए वह जन्म-जन्मान्तर से लालायित रहता है। मानसिक शान्ति तभी प्राप्त की जा सकती है जब मन भगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति में स्थित हो। भगवान् के अंशों को भगवान् की सेवा करने की विशिष्ट शक्ति प्रदत्त है ठीक उसी तरह जिस तरह श्रेष्ठ व्यापारी के पुत्रों को प्रशासन की विशिष्ट शक्ति प्राप्त रहती है। आज्ञाकारी पुत्र कभी भी अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध कार्य नहीं करता, अतएव वह परिवार के अध्यक्ष अर्थात् पिता की सहमति से अत्यन्त शान्तिपूर्ण जीवन बिताता है। इसी प्रकार चूँकि भगवान् पिता हैं, अतएव सारे जीवों को आज्ञाकारी पुत्रों की भाँति अपना कर्तव्य पूर्ण-रूपेण और सन्तोषजनक तरीके से निभाना चाहिए और पिता की इच्छा पूरी करनी चाहिए। इस प्रवृत्ति से ही मानव समाज में तुरन्त शान्ति तथा सम्पन्नता आ सकेगी।