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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 6: पुरुष सूक्त की पुष्टि  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  2.6.7 
विक्रमो भूर्भुव: स्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च ।
सर्वकामवरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
विक्रम:—अगले चरण; भू: भुव:—अधो तथा ऊर्ध्व लोकों के; स्व:—तथा स्वर्ग का; —भी; क्षेमस्य—हमारे पास जो कुछ है, उसकी सुरक्षा का; शरणस्य—निर्भयता का; —भी; सर्व-काम—वह सब, जिसकी हमें आवश्यकता पड़ती है; वरस्य— समस्त वरदानों का; अपि—ठीक-ठीक; हरे:—भगवान् के; चरण:—चरणकमल; आस्पदम्—शरण ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के अगले डग ऊर्ध्व, अधो तथा स्वर्गलोकों के एवं हमें जो भी चाहिए, उसके आश्रय हैं। उनके चरणकमल सभी प्रकार के भय के लिए सुरक्षा का काम करते हैं।
 
तात्पर्य
 सभी प्रकार के भय से पूर्ण सुरक्षा के लिए तथा जीवन की हमारी जितनी आवश्यकताएँ हैं, उनके लिए हमको न केवल इस लोक में अपितु ऊर्ध्व, अधो तथा स्वर्गलोक में भी भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए। भगवान् के चरणकमलों पर इस पूर्ण निर्भरता को ही शुद्ध भक्ति-मय सेवा कहते हैं और इस श्लोक में इसका प्रत्यक्ष संकेत किया गया है। इसके विषय में न तो कोई सन्देह होना चाहिए, न किसी को किसी अन्य देवता की शरण ग्रहण करने के लिए उन्मुख होना चाहिए, क्योंकि वे सब भगवान् पर ही आश्रित हैं। भगवान् के अतिरिक्त प्रत्येक जीव भगवान् की दया पर आश्रित है, यहाँ तक कि सर्वव्यापी परमात्मा तक भगवान् के परम स्वरूप पर आश्रित हैं।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥