श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  2.7.10 
नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनु-
र्यो वै चचार समद‍ृग् जडयोगचर्याम् ।
यत्पारमहंस्यमृषय: पदमामनन्ति
स्वस्थ: प्रशान्तकरण: परिमुक्तसङ्ग: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
नाभे:—महाराज नाभि के द्वारा; असौ—श्रीभगवान्; ऋषभ:—ऋषभ; आस—हुआ; सुदेवि—सुदेवी का; सूनु:—पुत्र; य:— जिसने; वै—निश्चय ही; चचार—सम्पन्न किया; सम-दृक्—समदर्शी; जड—भौतिक; योग-चर्याम्—योग अभ्यास; यत्—जो; पारमहंस्यम्—सिद्धि की परम अवस्था; ऋषय:—ऋषिगण; पदम्—पद; आमनन्ति—स्वीकार करते हैं; स्वस्थ:—अपने में स्थित; प्रशान्त—स्थिर; करण:—इन्द्रियाँ; परिमुक्त—पूर्णतया मुक्त; सङ्ग:—भौतिक कल्मष ।.
 
अनुवाद
 
 राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के पुत्र के रूप में भगवान् प्रकट हुए और ऋषभ-देव कहलाये। अपने मन को समदर्शी बनाने के लिए उन्होंने जड़-योग साधना की। इस अवस्था को मुक्ति का सर्वोच्च सिद्ध पद भी माना जाता है, जिसमें मनुष्य अपने में ही स्थित रहकर पूर्ण रूप से सन्तुष्ट रहता है।
 
तात्पर्य
 आत्म-साक्षात्कार के लिए जितनी प्रकार की योग-साधनाएँ की जाती हैं उनमें जड़-योग को भी विशेषज्ञों द्वारा मान्यता प्राप्त है। इस जड़-योग में पत्थर के समान मूक बनकर किसी प्रकार के भौतिक फल से अप्रभावित रहने का प्रयास करना पड़ता है। जिस प्रकार पत्थर सभी प्रकार के बाह्य घात-प्रतिघात के प्रति उदासीन रहता है, उसी प्रकार जड़-योग की साधना करने वाला भौतिक देह को स्वेच्छा से पहुँचाये जाने वाले समस्त कष्टों को सहन करता है। ऐसे योगी बाल नहीं बनाते और अपने सिर के बालों को किसी मशीनी साधन की सहायता लिए बिना हाथ से उखाड़ कर अपने आपको पीड़ा पहुँचाते हैं, जो स्वेच्छा से अपने आप को कष्ट पहुँचाने की बहुत सी विधियों में से एक है। किन्तु ऐसे जड़-योग का असली उद्देश्य समस्त भौतिक मोह से छुटकारा पाना और पूर्ण रूप से अपने में स्थित होना है। अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में महाराज ऋषभदेव मूक, पागल पुरुष की भाँति विचरण करते रहे—उन पर किसी भी शारीरिक दुर्व्यवहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उन्हें पागल की भाँति जटा बढ़ाये तथा नंगा घूमते देख कर, गली-कूचों के अल्पबुद्धि बालक तथा मनुष्य उन पर थूकते और उन पर पेशाब करते थे। वे अपनी ही विष्टा पर लेटे रहते थे और हटते नहीं थे। किन्तु उनका मल सुगंधित पुष्पों की भाँति दूर-दूर तक सुगन्धि फैलाता था और साधु पुरुष उन्हें परमहंस अर्थात् मानव सिद्धी की सर्वोच्च अवस्था में मानते थे। जो अपने मल को सुगन्धित न बना सके उसे सम्राट ऋषभदेव की नकल नहीं करनी चाहिए। जड़-योग का अभ्यास ऋषभदेव तथा उसी स्तर के सिद्ध लोगों के लिए सम्भव है, सामान्य लोगों के लिए यह असाधारण अभ्यास दुष्कर है।

जड़-योग का असली उद्देश्य प्रशान्त-करण: अर्थात् इन्द्रियों को वश में करना है, जैसाकि इस श्लोक में कहा गया है। योग की समूची प्रक्रिया, चाहे इसे जो भी नाम दें, असंयमित इन्द्रियों को वश में करने तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए तैयारी करने के लिए होती है। इस युग में विशेषत: जड़-योग का कोई व्यावहारिक महत्त्व नहीं है। इसके विपरीत भक्तियोग इस युग के लिए व्यावहारिक है, जो सर्वथा उपयुक्त है। उपयुक्त स्रोत से श्रवण करने की सहज विधि अर्थात् श्रीमद्भागवत को सुनकर योग की परम सिद्ध अवस्था प्राप्त की जा सकती है। ऋषभदेव राजा नाभि के पुत्र तथा राजा आग्नीध्र के पौत्र थे। वे राजा भरत के पिता थे जिनके नाम से इस पृथ्वीलोक का नाम भारतवर्ष पड़ा। ऋषभदेव की माता का नाम मेरुदेवी भी था, जिसे यहाँ पर सुदेवी कहा गया है। कभी-कभी लोग सुझाव देते हैं कि सुदेवी राजा नाभि की दूसरी पत्नी थी, किन्तु क्योंकि अन्यत्र ऋषभदेव को मेरुदेवी का पुत्र कहा गया है, अत: यह स्पष्ट है कि मेरुदेवी तथा सुदेवी एक ही व्यक्ति (स्त्री) के भिन्न-भिन्न नाम हैं।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥