तब आदि भगवान् मथानी की तरह उपयोग में लाऐ जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए घुरी (आश्रय स्थल) के रूप में कच्छप रूप में अवतरित हुए। देवता तथा असुर अमृत निकालने के उद्देश्य से मन्दराचल को मथानी बनाकर क्षीर सागर का मंथन कर रहे थे। यह पर्वत आगे-पीछे घूम रहा था जिससे भगवान् कच्छप की पीठ पर रगड़ पड़ रही थी,तब वे अघजगी निद्रा में थे और खुजलाहट का अनुभव कर रहे थे, उनकी पीठ रगड़ी जाने लगी।
तात्पर्य
यद्यपि हमें अनुभव नहीं हैं, किन्तु इस ब्रह्माण्ड में क्षीर सागर विद्यमान है। यहाँ तक कि आज के विज्ञानी भी स्वीकार करते हैं कि हमारे सिर के ऊपर सैकड़ों-लाखों लोक मँडरा रहे हैं और हर एक लोक की जलवायु भी भिन्न है। श्रीमद्भागवत ऐसी अनेक सूचनाएँ प्रदान करता है, जो हमारे वर्तमान अनुभव से मेल नहीं खातीं। किन्तु जहाँ तक भारतीय मुनियों का प्रश्न है, वे बिना हिचक के स्वीकार करते हैं कि हम प्रामाणिक ज्ञान ग्रन्थों (शास्त्र-चक्षुर्वत्) का अवलोकन करें क्योंकि ज्ञान वैदिक ग्रन्थों से ही प्राप्त होता है। अत: हम श्रीमद्भागवत में वर्णित क्षीर सागर की उपस्थिति को तब तक नहीं नकार सकते जब तक हम अन्तरिक्ष में मँडराने वाले समस्त लोकों का प्रायोगिक परीक्षण न कर लें। चूँकि ऐसा प्रयोग सम्भव नहीं है, अत: हमें श्रीमद्भागवत के कथन को यथावत् रूप में स्वीकार करना होगा क्योंकि श्रीधर स्वामी, जीव गोस्वामी, विश्वनाथ चक्रवर्ती तथा अन्य आध्यात्मिक अग्रगण्य जनों ने इसे स्वीकार किया है। वैदिक विधि यही है कि परम अधिकारियों के पदचिह्नों का अनुसरण किया जाय और जो हमारी कल्पना के परे है उसे जानने की यही एकमात्र विधि है।
आदि भगवान् सर्व-शक्तिमान होने के कारण, चाहे जो भी कर सकते हैं, अत: किसी विशेष उद्देश्य से कच्छप या मत्स्य का अवतार ग्रहण करना तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है। हमें श्रीमद्भागवत जैसे प्रामाणिक शास्त्रों के कथनों को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
देवों तथा असुरों के सामूहिक प्रयास से क्षीर सागर के मन्थन के गुरुतर कार्य के लिए विशाल मन्दराचल पर्वत के लिए गुरुतर आधार की आवश्यकता थी। फलत: आदि भगवान् देवताओं की सहायता के उद्देश्य से विशाल कच्छप के रूप में अवतरित हुए और क्षीर सागर में तैरने लगे। इस पर्वत की रगड़ से उनकी पीठ पर खुजली हो रही थी, किन्तु कुछ-कुछ सोये रहने से उन्हें इसका आभास नहीं हुआ।
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