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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  2.7.14 
त्रैपिष्टपोरुभयहा स नृसिंहरूपं
कृत्वा भ्रमद्भ्रुकुटिदंष्ट्रकरालवक्त्रम् ।
दैत्येन्द्रमाशु गदयाभिपतन्तमारा-
दूरौ निपात्य विददार नखै: स्फुरन्तम् ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
त्रै-पिष्टप—देवता; उरु-भय-हा—महान् भय को मिटाने वाला; स:—उसने (श्रीभगवान् ने); नृसिंह-रूपम्—नृसिंह अवतार; कृत्वा—करके; भ्रमत्—घूमती हुई; भ्रु-कुटि—भौंहे; दंष्ट्र—दाँत; कराल—अत्यन्त भयानक; वक्त्रम्—मुँह; दैत्य-इन्द्रम्— असुरों के राजा को; आशु—तुरन्त; गदया—गदा से; अभिपतन्तम्—गिरते हुए; आरात्—पास ही; ऊरौ—जाँघों पर; निपात्य— रखकर; विददार—विदीर्ण कर दिया; नखै:—नाखूनों से; स्फुरन्तम्—ललकारते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 श्रीभगवान् ने देवताओं के अदम्य भय को मिटाने के लिए नृसिंह-देव का अवतार ग्रहण किया। उन्होंने असुरों के उस राजा (हिरण्यकशिपु) को अपनी जाँघों में रखकर अपने नाखूनों से विदीर्ण कर डाला, जो हाथ में गदा लेकर भगवान् को ललकार रहा था। उस समय उनकी भौंहें क्रोध से फडक़ रही थीं और दाँतों के कारण उनका मुख भयावना लग रहा था।
 
तात्पर्य
 हिरण्यकशिपु तथा उसके पुत्र महान् भगवद्भक्त प्रह्लाद महाराज का जीवन चरित्र श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में वर्णित है। भौतिक उपलब्धियों के कारण हिरण्यकशिपु अत्यन्त बलशाली बन गया था और ब्रह्माजी की कृपा से वह अपने को अमर मानने लगा था। ब्रह्माजी ने उसे अमरत्व का वर नहीं दिया, क्योंकि वे स्वयं अमर जीव नहीं हैं। किन्तु उसे ब्रह्माजी से जो वर प्राप्त हुआ था वह गोल-मोल था, जो लगभग अमर होने के तुल्य था। उसे विश्वास था कि वह न तो किसी मनुष्य या देवता द्वारा और न किसी ज्ञात हथियार से मारा जा सकता है; न ही वह दिन में अथवा रात में मारा जा सकता है। फिर भी भगवान् ने आधा नर तथा आधा सिंह रूप में अवतार ग्रहण किया जो हिरण्यकशिपु जैसे भौतिक असुर के लिए अकल्पनीय था। इस प्रकार उन्होंने ब्रह्मा के वर को ध्यान में रखते हुए उसका वध कर दिया। उन्होंने उसे अपनी गोद में रखकर मारा जिससे उसका वध न तो पृथ्वी पर हुआ, न जल या आकाश में हुआ। भगवान् नृसिंह ने अपने नाखूनों से हिरण्यकशिपु को विदीर्ण किया, जो उसकी बुद्धि से परे मानवीय हथियार था। हिरण्यकशिपु का शाब्दिक अर्थ है—वह जो स्वर्ण तथा मृदु शय्या के चक्कर में रहे, जो भौतिकतावादी मनुष्यों का परम लक्ष्य है। ऐसे आसुरी पुरुष, जिनका भगवान् से कोई वास्ता नहीं रहता, भौतिक समृद्धि से प्राय: इतराने लगते हैं और भगवान् की सत्ता को ललकारते हुए उनके भक्तों का उत्पीडऩ प्रारम्भ कर देते हैं। प्रह्लाद महाराज हिरण्यकशिपु के ही पुत्र थे और चूँकि वे परम भक्त थे, इसलिए पिता उन्हें भरसक कष्ट पहुँचाता था। इस परिस्थिति में भगवान् नृसिंहदेव के रूप में अवतरित हुए और देवों के शत्रु हिरण्यकशिपु को इस प्रकार मारा जो उसकी बुद्धि के लिए अकल्पनीय था। सर्वशक्तिमान भगवान् सदा ही ईश्वरहीन असुरों की भौतिकतावादी योजनाओं को विफल करने वाले हैं।
 
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