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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  2.7.17 
ज्यायान् गुणैरवरजोऽप्यदिते: सुतानां
लोकान् विचक्रम इमान् यदथाधियज्ञ: ।
क्ष्मां वामनेन जगृहे त्रिपदच्छलेन
याच्ञामृते पथि चरन् प्रभुभिर्न चाल्य: ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
ज्यायान्—सबसे बड़ा; गुणै:—गुणों में; अवरज:—दिव्य; अपि—यद्यपि वह ऐसा है; अदिते:—अदिति के; सुतानाम्—सभी पुत्रों का (जो आदित्य कहे जाते हैं); लोकान्—सभी लोक; विचक्रमे—बढक़र; इमान्—इस ब्रह्माण्ड में; यत्—जो; अथ— अत:; अधियज्ञ:—श्रीभगवान्; क्ष्माम्—समस्त पृथ्वी; वामनेन—वामन अवतार से; जगृहे—स्वीकार किया; त्रिपद—तीन पग; छलेन—छल से; याच्ञाम्—भिक्षा; ऋते—बिना; पथि चरन्—सत्य मार्ग पर चलते हुए; प्रभुभि:—अधिकारियों द्वारा; — कभी नहीं; चाल्य:—से रहित होना, च्युत ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् समस्त भौतिक गुणों से परे होते हुए भी अदिति के पुत्रों (आदित्यों) के गुणों से कहीं बढ़ कर थे। वे अदिति के सबसे कनिष्ठ पुत्र के रूप में प्रकट हुए। और क्योंकि उन्होंने ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रहों को पार किया, अत: वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। उन्होंने तीन पग भूमि माँगने के बहाने से बलि महाराज की सारी भूमि ले ली। उन्होंने याचना इसीलिए की क्योंकि बिना याचना के, सन्मार्ग पर चलने वाले से कोई उसकी अधिकृत सम्पत्ति नहीं ले सकता।
 
तात्पर्य
 बलि महाराज तथा उनके द्वारा वामनदेव को दान दिये जाने की कथा श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में वर्णित है। बलि महाराज ने अपने बल से ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों को जीत लिया था। कोई भी राजा अपने पराक्रम से अन्य राजाओं को जीत सकता है और ऐसा आधिपत्य अधिकृत समझा जाता है। अत: बलि महाराज के पास ब्रह्माण्ड की सारी भूमि आ गई और वे ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान देने लगे। फलत: भगवान् ने ब्राह्मण भिक्षुक का वेष धारण किया और बलि महाराज से तीन पग भूमि माँगी। भगवान् तो सभी वस्तुओं के स्वामी हैं, अत: वे चाहते तो बलि महाराज की सारी भूमि ले सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि बलि ने यह सारी भूमि राजा के अधिकारों के अनुसार प्राप्त की थी। जब भगवान् ने बलि महाराज से इतना तुच्छ दान माँगा, तो बलि के गुरु शुक्राचार्य ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, क्योंकि उन्हें पता था कि भिक्षुक के रूप में वामन विष्णु ही थे। जब बलि महाराज को पता चल गया कि भिक्षुक विष्णु ही हैं, तो उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा की परवाह न करते हुए माँगी गई भूमि तुरन्त ही दान में देना स्वीकार कर लिया। इस समझौते के अनुसार भगवान् वामन ने ब्रह्माण्ड की सारी भूमि पहले दो पगों में ही नाप ली और बलि महाराज से अपना तीसरा पग रखने के लिए भूमि माँगी। बलि महाराज ने अपने मस्तक पर उनका तीसरा पग रखे जाने में प्रसन्नता व्यक्त की। इस प्रकार अपने पास जो कुछ था, उसे बलि महाराज ने खोया नहीं, वरन् भगवान् से आशीर्वाद प्राप्त किया कि वह उनका नित्य साथी और द्वारपाल बनकर उनके साथ रहे। अत: भगवान् के लिए सर्वस्व अर्पित करके मनुष्य कुछ भी खोता नहीं, वरन् सब कुछ प्राप्त करता है, जिसकी अन्यथा उसे कोई आशा नहीं रहती।
 
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