तुभ्यं च नारद भृशं भगवान् विवृद्ध-
भावेन साधुपरितुष्ट उवाच योगम् ।
ज्ञानं च भागवतमात्मसतत्त्वदीपं
यद्वासुदेवशरणा विदुरञ्जसैव ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
तुभ्यम्—तुमको; च—भी; नारद—हे नारद; भृशम्—अत्यन्त सुन्दर ढंग से; भगवान्—श्रीभगवान्; विवृद्ध—विकसित; भावेन—दिव्य प्रेम से; साधु—साधु रूप आप; परितुष्ट:—भली-भाँति संतुष्ट; उवाच—कहा; योगम्—सेवा; ज्ञानम्—ज्ञान; च—भी; भागवतम्—भगवान् तथा उनकी भक्ति का विज्ञान; आत्म—स्व; स-तत्त्व—समस्त विवरणों सहित; दीपम्—अंधकार में प्रकाश की भाँति; यत्—जो; वासुदेव-शरणा:—भगवान् वासुदेव के शरणागत; विदु:—उन्हें जानते हैं; अञ्जसा—भली भाँति; एव—उसी रूप में ।.
अनुवाद
हे नारद, तुम्हें श्रीभगवान् ने अपने हंसावतार में ईश्वर के विज्ञान तथा दिव्य प्रेमभाव के विषय में शिक्षा दी थी। वे तुम्हारी अगाध भक्ति से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे। उन्होंने तुम्हें भक्ति का पूरा विज्ञान भी अत्यन्त सुबोध ढंग से समझाया था, जिसे केवल भगवान् वासुदेव के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति ही समझ सकते हैं।
तात्पर्य
भक्त तथा भक्ति दो परस्पर सम्बद्ध पद हैं। जब तक कोई भगवान् का भक्त नहीं होना चाहता तब तक वह भक्तिमय सेवा के गूढ़ रहस्यों को नहीं जान सकता। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता अर्थात् भक्ति का विज्ञान समझाना चाहा, क्योंकि वह उनका न केवल मित्र वरन् परम भक्त भी था। बात यह है कि सभी जीवात्माएँ, स्वभावत: परम व्यक्तित्व, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अंश रूप होने के कारण, कर्म करने के लिए अपेक्षतया कुछ सीमा तक स्वतन्त्र भी हैं। अत: भगवान् की भक्ति प्राप्त करने के लिए स्वेच्छ-सहयोगी बनना है और पहले से भक्ति में लगे लोगों के साथ स्वेच्छा से सहयोग करना पहली योग्यता है। ऐसे व्यक्तियों को सहयोग प्रदान करने से प्रत्याशित भक्त क्रमश: भक्ति की प्रविधियाँ सीख सकेगा और धीरे-धीरे ज्ञान प्राप्त करके भौतिक संगति के कल्मष से मुक्त हो सकेगा। ऐसी शुद्धि-प्रक्रिया से प्रत्याशित भक्त में श्रद्धा उत्पन्न होगी और वह उसे भक्ति की दिव्य आस्वाद्य स्थिति तक ऊपर ले जाएगी। इससे उसमें भगवद्भक्ति के प्रति शुद्ध आसक्ति उत्पन्न होगी और उसे दिव्य प्रेम की अवस्था के निकट तक पहुँचाने से पहले आह्लाद के बिन्दु तक ले जाएगी।
भक्ति सम्बन्धी ऐसे ज्ञान के दो उपविभाग किये जा सकते हैं—भक्ति के स्वभाव से सम्बन्धित प्रारम्भिक ज्ञान तथा इसके अनुपालन का गौण ज्ञान। भागवत में श्रीभगवान् का, उनकी सुन्दरता का, उनके यश, ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, आकर्षण तथा प्रेम के बदले अपनी ओर आकर्षित करने वाले दिव्य गुणों का वर्णन हुआ है। जीवात्मा में भगवान् की प्रेमाभक्ति करने का सहज आकर्षण होता है। भौतिक संगति के प्रभाव से यह आकर्षण कृत्रिम रूप से आच्छादित होता है और श्रीमद्भागवत इस कृत्रिम आवरण को सही तौर पर हटाने में सहायक है। अत: इस श्लोक में विशेष उल्लेख है कि श्रीमद्भागवत दिव्य ज्ञान के दीप के तुल्य है। भक्ति में दिव्य ज्ञान के ये दोनों उपविभाग उन व्यक्तियों में प्रकट होते हैं, जो वासुदेव की शरण में जा चुके हैं, जैसाकि भगवद्गीता (७.१९) में कहा गया है— वासुदेव के चरणकमलों में पूर्ण रूप से समर्पित महापुरुष अत्यन्त दुर्लभ हैं।
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