श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  2.7.24 
यस्मा अदादुदधिरूढभयाङ्गवेपो
मार्गं सपद्यरिपुरं हरवद् दिधक्षो: ।
दूरे सुहृन्मथितरोषसुशोणद‍ृष्टय‍ा
तातप्यमानमकरोरगनक्रचक्र: ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
यस्मै—जिसको; अदात्—प्रदान किया; उदधि:—हिन्द महासागर ने; ऊढ-भय—भयभीत; अङ्ग-वेप:—काँपते हुए शरीर से; मार्गम्—मार्ग; सपदि—तुरन्त; अरि-पुरम्—शत्रु की नगरी; हर-वत्—हर (महादेव) के समान; दिधक्षो:—भस्म करने के लिए उद्यत; दूरे—दूरी पर; सु-हृत्—घनिष्ठ मित्र; मथित—पीडि़त; रोष—क्रोध में; सु-शोण—लाल-लाल; दृष्ट्या—ऐसी दृष्टि से; तातप्यमान—ज्वलित; मकर—मगरमच्छ; उरग—साँप; नक्र—घडिय़ाल; चक्र:—वृत्त, गोला ।.
 
अनुवाद
 
 दूरस्थ अपनी घनिष्ठ संगिनी (सीता) के वियोग से दुखी श्रीरामचन्द्र ने अपने शत्रु रावण की नगरी पर हर (शिव जो स्वर्ग के राज्य को भस्म कर देना चाहते थे) के जैसे ज्वलित लाल-लाल नेत्रों से दृष्टि डाली। अपार समुद्र ने उन्हें भय से काँपते हुए मार्ग दे दिया, क्योंकि उसके परिवार के सभी जलचर सदस्य यथा मगरमच्छ, सर्प तथा घडिय़ाल भगवान् के रक्त नेत्रों की क्रोधाग्नि से जले जा रहे थे।
 
तात्पर्य
 भगवान् में भी अन्य संवेदनशील जीवों की भाँति अनुभूति होती है, क्योंकि वे प्रधान एवं आदि व्यक्ति हैं और अन्य समस्त जीवों के परम स्रोत हैं। वे नित्य हैं, प्रमुख हैं अर्थात् अन्य सभी शाश्वत जिवात्माओं में प्रधान हैं। ये अनेक अधीनस्थ नित्य एक-नित्य पर आश्रित हैं, अत: गुणात्मक रूप से ये दोनों एक ही हैं। इसी एकरूपता के कारण इन दोनों नित्यों में सभी रसानुभूतियाँ तो हैं, किन्तु प्रमुख नित्य और अधीनस्थ नित्यों की महानता में मात्रा का अन्तर रहता है। जब रामचन्द्रजी क्रुद्ध होकर लाल लाल जलती हुई आँखें दिखाने लगे तो सारा समुद्र उस शक्ति से इतना तप्त हो उठा कि उसके सारे जलचर जलने लगे और साक्षात् समुद्र भय के मारे काँपने लगा। उसने उन्हें शत्रु की नगरी में पहुँचने का सरल मार्ग दे दिया। निर्विशेषवादियों को भगवान् के इस उग्रभाव पर आपत्ति हो सकती है, क्योंकि वे पूर्णता में नकारात्मकता देखना चाहते हैं। भगवान् के परम होने से निर्विशेषवादी सोचते हैं कि भगवान् में सांसारिक क्रोधभाव नहीं प्रकट होना चाहिए। अल्पज्ञान के कारण ये लोग यह नहीं समझ पाते कि परम पुरुष की भावना गुण और मात्रा की समस्त सांसारिक कल्पना से परे है। यदि भगवान् रामचन्द्र की भावना संसारी होती तो सारा समुद्र तथा उसके जलचर क्यों विचलित होते? क्या किसी सांसारिक व्यक्ति की लाल-लाल आँखें विशाल सागर को गर्म कर सकती हैं? ये ऐसे कारण हैं जिनके द्वारा, सगुण तथा निर्गुण विचारधाराओं के अनुसार, परम सत्य में अन्तर किया जाना चाहिए। जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में कहा गया है, परम सत्य ही प्रत्येक वस्तु का मूल है, अत: परम पुरुष नश्वर संसार में प्रतिबिम्बित भावनाओं से विहीन नहीं हो सकता। अपितु, परमेश्वर में पाई जाने वाली विभिन्न रसानुभूतियाँ, चाहे क्रोध की हों या करुणा की, गुणात्मक दृष्टिकोण से समान प्रभाव डालती हैं। दूसरे शब्दों में, इन अनुभूतियों के गुणों में कोई सांसारिक अन्तर नहीं होता। भले ही ये सभी परम पद पर होती हैं। ऐसी अनुभूतियाँ परमेश्वर में निश्चय ही अनुपस्थित नहीं रहतीं जैसाकि निर्विशेषवादी सोचते हैं और दिव्य जगत के विषय में संसारी अनुमान लगाते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥