वक्ष:-स्थल—छाती; स्पर्श—छूने से; रुग्न—खंडित; महा-इन्द्र—स्वर्ग के राजा के; वाह—वाहन की; दन्तै:—सूँड़ से; विडम्बित—प्रकाशित; ककुप्-जुष:—सभी दिशाएँ; ऊढ-हासम्—अट्टहास; सद्य:—तुरन्त; असुभि:—प्राण; सह—सहित; विनेष्यति—मार डाला गया; दार-हर्तु:—स्त्री को चुराने वाला; विस्फूर्जितै:—सिहरन उत्पन्न करने वाले; धनुष:—धनुष के द्वारा; उच्चरत:—तेजी से विचरण करते हुए; अधिसैन्ये—दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच ।.
अनुवाद
जब रावण युद्ध कर रहा था, तो उसकी छाती से टकराकर स्वर्ग के राजा इन्द्र के हाथी की सूँड़ खण्ड-खण्ड हो गई और ये खण्ड बिखरकर चारों दिशाओं को चकाचौंध करने लगे। अत: रावण को अपने शौर्य पर गर्व होने लगा और वह अपने को समस्त दिशाओं का विजेता समझ कर सैनिकों के बीच इतराने लगा। किन्तु भगवान् श्री रामचन्द्र द्वारा अपने धनुष पर टंकार करने पर उसकी वह प्रसन्नता की हँसी उसकी प्राणवायु के साथ ही सहसा बन्द हो गई।
तात्पर्य
कोई कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो, जब उससे भगवान् रूठ जाते हैं, तो उसे कोई नहीं बचा सकता। इसी प्रकार, कोई कितना ही निर्बल क्यों न हो, यदि भगवान् उसके रक्षक हैं, तो उसको कोई मार नहीं सकता।
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