इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण और उनके निकटतम अंश, भगवान् बलदेव, के प्राकट्य का वर्णन हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलदेव दोनों एक ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। भगवान् सर्वशक्तिमान हैं और अनेक रूपों तथा शक्तियों के रूप में अपना विस्तार करते हैं और यह सम्पूर्ण इकाई परब्रह्म कहलाती है। भगवान् के ऐसे विस्तारों के दो विभाग हैं—स्वांश तथा विभिन्नांश। सारे स्वांश विस्तार विष्णु-तत्त्व कहलाते हैं और भिन्नांश विस्तार जीव-तत्त्व कहलाते हैं। ऐसे विस्तारों में भगवान् बलदेव, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के प्रथम स्वांश विस्तार हैं। विष्णुपुराण तथा महाभारत दोनों में श्रीकृष्ण तथा बलदेव की वृद्धावस्था हो जाने पर भी काले- काले बाल बताये गये हैं। भगवान् को अनुपलक्ष्य मार्ग: अथवा वैदिक पारिभाषिक शब्दावली में अवाङ्मनसा गोचर: कहा गया है—अर्थात् सामान्यजनों के लिए सीमित इन्द्रिय-अनुभूति से अनुभवगम्य या दृश्य नहीं हैं। भगवद्गीता (७.२५) में कहा गया है—नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:। दूसरे शब्दों में, उन्हें अधिकार प्राप्त है कि वे जिसके समक्ष चाहें प्रकट हों या न हों। केवल प्रामाणिक भक्त ही उनके विशिष्ट लक्षणों से उन्हें जान सकते हैं और ऐसे अनेक लक्षणों में से इस श्लोक में एक लक्षण का वर्णन है—सितकृष्ण केश:—अर्थात् जिनके सुन्दर काले-काले बाल हैं। भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलदेव दोनों के सिरों पर वृद्धावस्था में भी ऐसे बाल रहते हैं। वे बुढ़ापे में भी सोलह वर्ष के बालकों-से प्रतीत होते थे। श्रीभगवान् का यही विशिष्ट लक्षण है। ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि यद्यपि वे समस्त जीवात्माओं में सबसे वृद्ध हैं, किन्तु वे सदैव तरुण लगते हैं। आध्यात्मिक देह का यही लक्षण है। भौतिक देह में जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग के लक्षण दिखते हैं, किन्तु आध्यात्मिक देह में इन लक्षणों का अभाव रहता है। वैकुण्ठ लोक में रहने वाले जीवात्माओं का भी ऐसा ही आध्यात्मिक शरीर होता है, जिसमें वृद्धावस्था के कोई लक्षण नहीं दिखते। भागवत के षष्ठम स्कंध में कहा गया है कि अजामिल को यमदूतों से छुड़ाने के लिए जो विष्णुदूत आये वे तरुण लग रहे थे। इससे भी इस श्लोक के वर्णन की पुष्टि होती है। अत: यह निश्चित हो गया है कि वैकुण्ठ लोकों में भगवान् या अन्य निवासियों के आध्यात्मिक शरीर इस संसार के मनुष्यों के शरीरों से भिन्न होते हैं। अत: जब भगवान् उस लोक से इस संसार में अवतरित होते हैं, तो वे अपनी आत्ममाया के आध्यात्मिक शरीर समेत आते हैं जिसमें बहिरंगा माया छू तक नहीं पाती। जो यह कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म भौतिक देह धारण करके इस संसार में प्रकट होता है, सर्वथा अनर्गल प्रलाप है। अत: जब भगवान् यहाँ पर आते हैं, तो वे आध्यात्मिक देह में ही आते हैं, भौतिक देह में नहीं। निर्विशेष, ब्रह्मज्योति उनके शरीर से निर्गत मात्र तेज ही है, अत: भगवान् के शरीर तथा उनकी निर्विशेष ब्रह्मज्योति के गुण में कोई अन्तर नहीं होता।
प्रश्न यह है कि दुष्ट राजाओं द्वारा संसार में उत्पन्न भार को कम करने के लिए सर्वशक्तिमान भगवान् यहाँ पर क्यों आते हैं? निस्सन्देह भगवान् को ऐसे कार्यों के लिए स्वयं आने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु वे अपने शुद्ध भक्तों को प्रोत्साहित करने के लिए अपने दिव्य कार्यकलाप प्रदर्शित करने हेतु यहाँ आते हैं, क्योंकि भक्त भगवान् की महिमा का गान करके जीवन का सुख भोगना चाहते हैं। भगवद्गीता (९.१३-१४) में कहा गया है कि महात्मागण भगवान् के कार्यकलापों के गान में आनन्द का अनुभव करते हैं। समग्र वैदिक साहित्य का ध्येय मनुष्य के ध्यान को भगवान् तथा उनके कार्यकलापों की ओर उन्मुख करना है। सांसारिक लोगों से सम्बन्धित भगवान् के ये कार्यकलाप शुद्ध भक्तों की चर्चा के विषय बनते हैं।