तोकेन जीवहरणं यदुलूकिकाया-
स्त्रैमासिकस्य च पदा शकटोऽपवृत्त: ।
यद् रिङ्गतान्तरगतेन दिविस्पृशोर्वा
उन्मूलनं त्वितरथार्जुनयोर्न भाव्यम् ॥ २७ ॥
शब्दार्थ
तोकेन—बालक द्वारा; जीव-हरणम्—जीव का वध; यत्—जो; उलूकि-काया:—असुर का विशाल शरीर धारण कर लिया; त्रै-मासिकस्य—तीन मास का; च—भी; पदा—पैर से; शकट: अपवृत्त:—छकड़े को पलट दिया; यत्—जो; रिङ्गता—घुटने के बल चलते; अन्तर-गतेन—बीच में जाकर; दिवि—आकाश में ऊँचे; स्पृशो:—छूते हुए; वा—अथवा; उन्मूलनम्—जड़ समेत उखाड़ लेना; तु—लेकिन; इतरथा—के अतिरिक्त अन्य; अर्जुनयो:—अर्जुन के दो वृक्षों का; न भाव्यम्—सम्भव न था ।.
अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण के परमेश्वर होने में कोई सन्देह नहीं है, अन्यथा जब वे अभी अपनी माता की गोद में थे तो पूतना जैसी राक्षसी का वध किस तरह कर सकते थे; तीन मास की आयु में ही अपने पाँव से छकड़े को कैसे पलट सकते थे और जब घुटने के बल चल रहे थे तभी गगनचुम्बी अर्जुन वृक्षों के जोड़े को समूल कैसे उखाड़ सकते थे? ये सभी कार्य स्वयं भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए असम्भव हैं।
तात्पर्य
भगवान् का निर्माण मानसिक कल्पना या वोटों की गणना से कोई भगवान को निर्मित नहीं कर सकता जैसाकि आजकल के अल्पज्ञानी लोग करने लगे हैं। ईश्वर तो सदैव ईश्वर ही रहता है और सामान्य जीवात्मा नित्य ईश्वर का एक अंश ही है। ईश्वर अद्वितीय है, किन्तु जीवात्माएँ अनगिनत हैं। इन सभी जीवात्माओं का पालन ईश्वर द्वारा होता है। वेदों का यही मत है। जब श्रीकृष्ण अभी माँ की गोद में ही थे तो पूतना राक्षसी उनकी माता के समक्ष प्रकट हुई और उसने शिशु को अपनी गोद में खिलाने के लिए याचना की। माता यशोदा राजी हो गईं और वह शिशु को सम्मानीय स्त्री वेश में आई पूतना की गोद में दे दिया गया। पूतना अपने स्तनों के अग्रभाग में विष लगाकर आई थी और इस शिशु को मारना चाह रही थी। और जब सब कुछ पूरा हो गया, तब बाल रूप भगवान् ने उसके स्तनों को इतनी जोर से चूसा कि उसके प्राण निकल गये। उसका तथाकथित छह मील लम्बा शरीर भूमि पर गिर पड़ा। भगवान् को अपने शरीर का पूतना राक्षसी के शरीर जितना विस्तार नहीं करना पड़ा यद्यपि वे चाहते तो छह मील से भी अधिक विशाल बन सकते थे। वामन अवतार में उन्होंने स्वयं को बौना ब्राह्मण बना लिया था, किन्तु जब बलि महाराज ने भूमि देने का वचन दे दिया तो उन्होंने अपने अंगों को ब्रह्माण्ड की चोटी तक लाखों मील लम्बा कर लिया। अत: अपने शरीर को विस्तृत करके चमत्कार दिखाना श्रीकृष्ण के लिए कोई कठिन कार्य नहीं था, किन्तु उन्होंने प्रगाढ़ मातृप्रेम के कारण ऐसा नहीं किया। यशोदा यदि अपने पुत्र को पूतना की गोद में छह मील तक विस्तृत होते देख लेतीं तो उनके मातृत्व को धक्का लगता और वे जान जातीं कि उनका यह तथाकथित पुत्र श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं। तब यशोदा माई को अपने पुत्र के प्रति सहज मातृप्रेम न रह पाता। किन्तु जहाँ तक श्रीकृष्ण का सम्बन्ध है वे तो सदैव ईश्वर हैं, चाहे वे अपनी माता की गोद में शिशु रूप में हों या वामनदेव के रूप में, सारे ब्रह्माण्ड को नापने वाले हों। उन्हें कठिन तपस्या करके ईश्वर बनने की आवश्यकता नहीं रहती, यद्यपि कुछ लोग ऐसा करके ईश्वर बनने की बात सोचते हैं। कठिन तपस्या द्वारा कोई न तो ईश्वर से एकाकार हो सकता है, न उनके तुल्य बन सकता है, किन्तु वह मात्र अनेक दैवी गुण प्राप्त कर सकता है। जीवात्मा बहुत हद तक दैवी गुण प्राप्त कर सकता है, किन्तु वह ईश्वर नहीं बन सकता। श्रीकृष्ण बिना किसी तपस्या के सदैव ईश्वर हैं, चाहे वे अपनी माँ की गोद में खेल रहे हों या बड़े होने की अवस्था में हों।
इस प्रकार जब वे तीन मास के थे तो उन्होंने यशोदा माई के घर में छकड़े के पीछे छिपे शकटासुर का वध किया। जब श्रीकृष्ण घुटने के बल रेंग-रेंग कर अपनी माता के कार्यों में बाधा डाल रहे थे, तो उनकी माता ने उन्हें ऊखल में बाँध दिया था, किन्तु नटखट बालक ऊखल को घसीटते हुए यशोदा माई के आँगन में उगे बहुत ऊँचे अर्जुन वृक्षों की जोड़ी के बीच पहुँच गये और जब ऊखल उनमें फँस गया तो उनके खींचने पर दोनों वृक्ष धम्म से गिर पड़े। जब यशोदा माई ने यह घटना देखी तो उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उनका बालक गिरे वृक्षों से बच गया है, उन्हें इसका कोई ज्ञान न था कि उन्हीं के बालक ने आँगन में रेंगते-रेंगते यह कृत्य किया है। भगवान् तथा उनके भक्तों के बीच प्रेम का पारस्परिक आदान-प्रदान ऐसा ही है। यशोदा माई ने भगवान् को पुत्र रूप में चाहा और भगवान् उनकी गोदी में शिशुवत् क्रीड़ा करते रहे, किन्तु साथ ही जब-जब आवश्यकता पड़ी, उन्होंने सर्वशक्तिमान भगवान् की भी भूमिका निभाई। ऐसी लीलाओं की यही विशेषता रही कि वे सबों की आकांक्षाओं को पूरा करते रहे। जुड़वाँ विशाल अर्जुन वृक्षों को गिराने के पीछे भगवान् का उद्देश्य था नारद के शाप से वृक्ष बने कुबेर के दोनों पुत्रों को शाप से उबारना और उसके साथ ही यशोदा माई के आँगन में घुटने के बल सरक-सरक कर चलना जिसे देख कर यशोदा को दिव्य आनन्द प्राप्त हो। भगवान् चाहे जैसी भी स्थिति में रहें, रहते तो भगवान् ही हैं, वे इच्छानुसार विराट या लघु रूप धारण कर सकते हैं।
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