भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहूति को जो उपदेश दिये, वे श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध (अध्याय २५-३२) में दिये गये हैं और जो भी उनका पालन करता है उसे देवहूति के समान मुक्ति प्राप्त हो सकती है। भगवान् ने अुर्जन को भगवद्गीता सुनाई जिससे उसे आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हुआ। आज भी जो कोई अर्जुन के पथ का अनुसरण करता है, वह अर्जुन के ही समान लाभ प्राप्त कर सकता है। शास्त्र इसीलिए हैं। मूर्ख तथा अल्पज्ञानी मनुष्य अपनी कल्पना से उनकी विवेचना करके अपने अनुयायियों को गुमराह करते हैं और उन्हें संसार के गर्त में पड़े रहने देते हैं। किन्तु आज भी यदि कोई भगवान् श्रीकृष्ण या कपिल के उपदेशों का पालन करे, तो उसे परम लाभ हो सकता है। आत्म-गतिम् शब्द परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के प्रसंग में महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य को भगवान् तथा जीव के केवल गुणों की समता को जान लेने भर से सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए। उसे चाहिए कि अपने सीमित ज्ञान से जितना तक सम्भव हो भगवान् के विषय में जानने का प्रयास करे। भगवान् को पूरी तरह जान पाना शिव या ब्रह्मा जैसे मुक्त पुरुषों के लिए भी कठिन है, तो भला उन्हें अन्य देवता या संसारी पुरुष कैसे जान सकते हैं? तो भी महान् भक्तों तथा शास्त्रों में उपलब्ध आदेशों का पालन करते हुए भगवान् के विषय में बहुत कुछ जाना जा सकता है। भगवान् के अवतार, महामुनि कपिल, ने अपनी माता को भगवान् के स्वरूप के विषय में पूरी तरह उपदेश दिया जिससे उन्हें भगवान् का साक्षात्कार हो सका और वे वैकुण्ठ लोक में स्थान प्राप्त कर सकीं जहाँ पर कपिल का आधिपत्य है। भगवान् के प्रत्येक अवतार का परव्योम में अपना-अपना धाम होता है, अत: श्रीकपिल का भी अपना पृथक् वैकुण्ठ लोक है। परव्योम शून्य नहीं है। इसमें अनेक वैकुण्ठ लोक हैं और प्रत्येक में भगवान् अपने असंख्य विस्तारों के द्वारा शासन करते हैं और वहाँ पर रहने वाले शुद्ध भक्त भी भगवान् तथा उनके पार्षदों के समान जीवन-यापन करते हैं। जब भगवान् स्वयं या अपने अंश रूप में अवतरित होते हैं, तो इन अवतारों को अंश, कला, गुण, युग तथा मन्वन्तर अवतार कहा जाता है और जब भगवान् के आदेश से उनका कोई पार्षद अवतार लेता है, तो ऐसे अवतार को शक्त्यावेश अवतार कहा जाता है। किन्तु प्रत्येक दशा में इन सभी अवतारों की पुष्टि प्रामाणिक शास्त्रों के निर्विवाद कथनों द्वारा की जाती है, न कि अपना विज्ञापन करने वाले की किसी कल्पना से। उपर्युक्त दोनों प्रकार के सभी अवतार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को ही परम सत्य घोषित करते हैं। परम सत्य की निर्विशेष अवधारणा भगवान् के उस स्वरूप का निषेध मात्र ही है, जो परम सत्य की सांसारिक धारणा से उत्पन्न है।
जीवात्माएँ आध्यात्मिकता में स्वभाविक रूप से भगवान् के समान ही उत्तम हैं—दोनों में केवल इतना ही अन्तर है कि भगवान् सदा परम तथा शुद्ध हैं और प्रकृति के गुणों से दूषित नहीं होते, जबकि जीवात्माएँ सत्त्व, रज तथा तम के भौतिक गुणों की संगति से दूषित होती रहती हैं। तीनों गुणों से उत्पन्न यह दूषण ज्ञान, त्याग तथा भक्ति के द्वारा पूर्ण रुप से धोया जा सकता है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य तो भगवद्भक्ति है, अत: जो सीधे ही भगवान् की भक्ति में लगे हैं, वे आत्मज्ञान तो प्राप्त करते ही हैं, साथ ही सांसारिकता से विरक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं और इस तरह परम मुक्त होकर भगवान् के धाम जाते हैं जैसाकि भगवद्गीता (१४.२६) में कहा गया है—
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
जीवात्मा अ-मुक्त अवस्था में भी, भगवान् श्रीकृष्ण या उनके अंशरूप राम तथा नृसिंह की दिव्य प्रेमाभक्ति कर सकता है। इस प्रकार दिव्य भक्ति-मय सेवा द्वारा भक्त क्रमश: ब्रह्मगतिम् या आत्मगतिम् की ओर अग्रसर होता रहता है और अन्त में बिना किसी कठिनाई के कपिलस्य गतिम् अर्थात् भगवान् के धाम को प्राप्त करता है। भगवद्भक्ति की निर्विश-शक्ति इतनी अधिक है कि वह भक्त के वर्तमान जीवन के भौतिक संदूषण को भी निष्प्रभावित कर सकती है। पूर्णमुक्ति के लिए भक्त को अगले जन्म की प्रतीक्षा नहीं करनी होती।