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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  2.7.30 
गृह्णीत यद् यदुपबन्धममुष्य माता
शुल्बं सुतस्य न तु तत् तदमुष्य माति ।
यज्जृम्भतोऽस्य वदने भुवनानि गोपी
संवीक्ष्य शङ्कितमना: प्रतिबोधितासीत् ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
गृह्णीत—ग्रहण करके; यत् यत्—जो भी; उपबन्धम्—बाँधने की रस्सियाँ; अमुष्य—उसकी; माता—माता; शुल्बम्—रस्सी; सुतस्य—अपने पुत्र का; —नहीं; तु—तो भी; तत् तत्—क्रमश:; अमुष्य—उसका; माति—पर्याप्त था; यत्—जो; जृम्भत:— जम्हाई लेता; अस्य—उसके; वदने—मुख में; भुवनानि—समस्त लोक; गोपी—ग्वालिन, ग्वालबाला; संवीक्ष्य—अत: इसे देखकर; शङ्कित-मना:—सन्देहपूर्ण मन; प्रतिबोधिता—भिन्न प्रकार से आश्वस्त; आसीत्—था ।.
 
अनुवाद
 
 जब गोपी (कृष्ण की धात्री माता यशोदा) अपने पुत्र के दोनों हाथों को रस्सियों से बाँधने का प्रयास कर रही थी तो उसने देखा कि रस्सी हमेशा छोटी पड़ जाती थी, अत: हार कर जब उसने प्रयास करना बन्द कर दिया, तब श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया तो माता यशोदा को मुख के भीतर सारे ब्रह्माण्ड स्थित दिखे। यह देख कर उसे सन्देह हुआ, किन्तु उसे अपने पुत्र की योग-शक्ति का पता भिन्न तरीके से लगा।
 
तात्पर्य
 एक दिन नटखट बालक की तरह कृष्ण ने अपनी माता यशोदा को खिझाना शुरू किया, तो वह दण्ड देने के लिए बालक को रस्सी से बाँधने लगी। किन्तु वह रस्सी को जितना ही बढ़ाती, रस्सी हमेशा छोटी पड़ जाती। आखिर वह थक गई, किन्तु इसी बीच भगवान् ने अपना मुँह खोला और ममतामयी माँ ने उसके भीतर सभी ब्रह्माण्ड उपस्थित देखे। उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ, किन्तु उसने सोचा कि सर्व-शक्तिमान नारायण ने उसके पुत्र की सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करने के लिए चौकसी वश ऐसा कर रखा है। कृष्ण के लिए प्रगाढ़ प्यार होने के कारण वह कभी सोच ही नहीं पाई कि उसका पुत्र साक्षात् भगवान् नारायण ही है। यह भगवान् की अंतरंगा शक्ति योगमाया है, जिसमें विभिन्न प्रकार के भक्तों के साथ भगवान् की लीलाएँ पूरी होती हैं। ईश्वर के बिना ऐसे विचित्र खेल कौन खेल सकता है?
 
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