श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  2.7.32 
गोपैर्मखे प्रतिहते व्रजविप्लवाय
देवेऽभिवर्षति पशून् कृपया रिरक्षु: ।
धर्तोच्छिलीन्ध्रमिव सप्तदिनानि सप्त-
वर्षो महीध्रमनघैककरे सलीलम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
गोपै:—ग्वालों के द्वारा; मखे—स्वर्ग के राजा को बलि प्रदान करने में; प्रतिहते—बाधा डाले जाने पर; व्रज-विप्लवाय— श्रीकृष्ण की लीलास्थली व्रजभूमि को तहस-नहस करने के लिए; देवे—स्वर्ग के राजा द्वारा; अभिवर्षति—मूसलाधार वर्षा करके; पशून्—पशू; कृपया—उन पर अहैतुकी कृपा द्वारा; रिरक्षु:—उन्हें बचाने की इच्छा की; धर्त—धारण किया हुआ; उच्छिलीन्ध्रम्—छाते की भाँति उठा लिया; इव—सदृश; सप्त-दिनानि—लगातार सात दिनों तक; सप्त-वर्ष:—यद्यपि वे सात वर्ष के थे; महीध्रम्—गोवर्द्धन पर्वत; अनघ—बिना थके; एक-करे—केवल एक हाथ में; सलीलम्—खेल-खेल में ।.
 
अनुवाद
 
 जब वृन्दावन के ग्वालों ने श्रीकृष्ण के आदेश से स्वर्ग के राजा इन्द्र को आहुति देना बन्द कर दिया तो लगातार सात दिनों तक मूसलाधार वर्षा होती रही और ऐसा लग रहा था मानो सारी ब्रजभूमि बह जायेगी। तब केवल सात वर्ष की आयु के श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों पर अपनी अहैतुकी कृपावश अपने एक हाथ से गोवर्द्धन पर्वत को उठा लिया। ऐसा उन्होंने वर्षा से पशुओं की रक्षा करने के लिए ही किया।
 
तात्पर्य
 बच्चे प्राय: कुकुरमुत्ता (छत्रक) से खेलते हैं। अभी श्रीकृष्ण सात वर्ष के ही थे कि उन्होंने वृन्दावन स्थित विशाल गोवर्द्धन पर्वत को पकड़ कर छत्रक की भाँति उठा लिया और व्रजवासियों द्वारा इन्द्र को यज्ञ की आहुतियाँ देने से इनकार किए जाने के कारण पशुओं तथा व्रजवासियों की इन्द्र के रोष से रक्षा करने के लिए वे उसे लगातार सात दिन तक धारण किये रहे।

वास्तव में यदि कोई परमेश्वर की सेवा में निरत रहे तो देवताओं को बलि देने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैदिक साहित्य में देवताओं को संतुष्ट रखने के लिए यज्ञों का जो विधान है, वह याजक के लिए एक प्रकार की प्रेरणा है, जिससे उसे उच्चतर अधिकारियों की उपस्थिति का बोध हो सके। श्रीभगवान् के द्वारा भौतिक कार्यों के नियन्त्रण हेतु देवताओं की नियुक्ति की जाती है और भगवद्गीता के अनुसार यदि कोई देवता की पूजा करता है, तो इसे परमेश्वर-पूजन की अप्रत्यक्ष विधि माना जाता है। किन्तु जब कोई परमेश्वर की प्रत्यक्ष पूजा करता है, तो उसके लिए देवताओं के पूजने या विशेष अवस्था में यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। फलत: भगवान् श्रीकृष्ण ने व्रजवासियों को सलाह दी कि वे स्वर्ग के राजा इन्द्र को किसी प्रकार की बलि भेंट न करें। किन्तु यह जाने बिना कि व्रजभूमि मेंं भगवान् कृष्ण हैं, इन्द्र व्रजवासियों पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने इस अपराध का बदला लेना चाहा। किन्तु भगवान् होने के कारण, श्रीकृष्ण ने व्रजभूमि के निवासियों तथा पशुओं को अपनी अन्तरंगा शक्ति से बचा लिया और यह सिद्ध कर दिया कि यदि कोई परमेश्वर का भक्त बन कर उनकी सेवा करता है, तो उसे अन्य देवताओं को प्रसन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है, चाहे वह ब्रह्मा या शिव जैसे उच्चपद वाला देव ही क्यों न हो। इस प्रकार इस घटना से यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया कि श्रीकृष्ण ही श्रीभगवान् हैं और वे ऐसे ही हर परिस्थिति में रहते हैं, चाहे अपनी माँ की गोद में शिशु रूप में हों या सप्तवर्षीय बालक के रूप में अथवा १२५ वर्षीय वृद्ध पुरुष हों। लेकिन प्रत्येक अवस्था में वे सामान्य मनुष्य के स्तर तक कभी नहीं पहुँचे, यहाँ तक कि वृद्धावस्था में भी वे सोलह वर्ष के युवक लगते थे। भगवान् के दिव्य शरीर के ये कुछ विशेष लक्षण हैं।

 
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