यर्हि—जब ऐसा होता है; आलयेषु—घर में; अपि—भी; सताम्—सभ्य व्यक्ति; न—नहीं; हरे:—श्री भगवान् की; कथा:— कथा; स्यु:—होगी; पाषण्डिन:—नास्तिक; द्विज-जना:—अपने को उच्च जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) वाला घोषित करने वाले; वृषला:—निम्नवर्गीय शूद्र; नृ-देवा:—राज्य के मन्त्री; स्वाहा—यज्ञ-स्तोत्र; स्वधा—यज्ञ की सामग्री; वषट्—यज्ञ वेदी; इति—ये सब; स्म—होंगे; गिर:—शब्द; न—कभी नहीं; यत्र—कहीं भी; शास्ता—दण्ड देने वाला; भविष्यति—प्रकट होगा; कले:—कलियुग का; भगवान्—श्री भगवान्; युग-अन्ते—युग के अन्त में ।.
अनुवाद
तत्पश्चात् कलियुग के अन्त में, जब तथाकथित सन्तों तथा द्विजों के घरों में भी ईश्वर की कथा नहीं होगी और जब सरकार की शक्ति निम्न कुल में उत्पन्न शूद्रों अथवा उनसे भी निम्न लोगों में से चुने गये मन्त्रियों के हाथों में चली जाएगी और जब यज्ञ विधि के विषय में कुछ भी, यहाँ तक कि उच्चारण भी, ज्ञात नहीं रहेंगे तो उस समय भगवान् परम दण्डदाता के रूप में प्रकट होंगे।
तात्पर्य
यहाँ पर इस कलियुग के अन्तिम चरण में भौतिक जगत की निकृष्ट अवस्थाओं के लक्षणों का उल्लेख हुआ है। इन अवस्थाओं का सार-समाहार ईश्वरविहीनता है। यहाँ तक कि तथाकथित सन्त व समाज के उच्च वर्ण, जिन्हें सामान्य रूप से द्विज-जन कहा जाता है, नास्तिक हो जाएँगे। फलत: वे सब ईश्वर का पवित्र नाम तक भूल जाएँगे उनके, कार्यकलाप की बात तो दूर रही। समाज के उच्च वर्ण अर्थात् समाज के भाग्य-विधायक ज्ञानी पुरुष, समाज में शान्ति तथा व्यवस्था के उत्तरदायी प्रशासक वर्ग तथा समाज की आर्थिक उन्नति के प्रदर्शक व्यवसायी वर्ग—इस सबों को परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए; उन्हें उनके नाम, गुण, लीला, पार्षद, सामग्री, व्यक्तित्व आदि से परिचित होना चाहिए। समाज के उच्च वर्गों तथा सन्तों की पहचान उनके तत्त्व-ज्ञान के अनुपात से की जाती है, उनके जन्म या शारीरिक उपाधियों से नहीं। तत्त्व-ज्ञान तथा भक्ति के व्यावहारिक ज्ञान के बिना ये उपाधियाँ शवों के अलंकरणों के तुल्य समझी जाती हैं और जब समाज में ऐसे अलंकरणों की बाढ़ आ जाती है, तो मनुष्य के प्रगतिशील, शान्त जीवन में अनेक विषमताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। समाज के उच्च वर्गों में प्रशिक्षण या संस्कृति का अभाव होने से वे अब द्विज-जन कहलाने के अधिकारी नहीं रहते। द्विज की महत्ता की व्याख्या इन महान् ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर मिलती है, किन्तु यहाँ पुन: बता देना अभीष्ट है कि माता-पिता के सम्भोग से होने वाला जन्म पशु जन्म कहलाता है। किन्तु ऐसा पशु जन्म तथा आहार, निद्रा, भय, मैथुन पर आधारित पशु जीवन आध्यात्मिक जीवन की किसी वैज्ञानिक संस्कृति के बिना शूद्र जीवन अर्थात् निम्न श्रेणी के व्यक्तियों का असंस्कृत जीवन है। यहाँ पर उल्लेख है कि कलियुग में समाज की प्रशासन शक्ति असंस्कृत, ईश्वरविहीन श्रमजीवी वर्ग के हाथों में चली जाएगी और नृदेव (अथवा सरकारी मन्त्रीगण) वृषल अर्थात् समाज के निम्न असंस्कृत लोग होंगे। यदि मानव समाज ऐसे असंस्कृत निम्न श्रेणी के लोगों से भरा रहे तो सुख तथा शान्ति की आशा व्यर्थ है। मनुष्यों में ऐसे असंस्कृत सामाजिक पशुओं के लक्षण पहले से विद्यमान हैं। जन-नायकों का कर्तव्य है कि इस ओर ध्यान दें और तत्त्व ज्ञान में प्रशिक्षित द्विज लोगों को प्रतिष्ठित करके सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास करें। सारे विश्व में श्रीमद्भागवत की संस्कृति के प्रसार से ही यह सम्भव है। मानव समाज की अधोगति होने पर भगवान् कल्कि अवतार के रूप में प्रकट होते हैं और निर्दय बनकर समस्त आसुरी लोगों का बध कर देते हैं।
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